महामारी के दौरान स्वरोजगार की संख्या क्यों बढ़ी और नियमित वेतन वाले रोजगार की संख्या क्यों घटी? और इस अनुपात का आज भी उसी रूप में बने रहना क्या बताता है?
अप्रिय आंकड़ों को कैसे चमकदार बना कर पेश किया जा सकता है, उसे समझना हो, तो पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) की ताजा सर्वे रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए। यह रिपोर्ट इस वर्ष जून और जुलाई महीनों के बारे में है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान की तरफ से जारी इस रिपोर्ट के आधार पर अखबारों ने सुर्खियां बनाई हैं कि इन दो महीनों में देश में बेरोजगारी की दर गिरी। साथ ही श्रम बाजार में भागीदारी (एलएफपीआर) दर में वृद्धि हुई है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में इस अवधि में बेरोजगारी दर क्रमशः 5.4 और 2.4 प्रतिशत रही, जबकि उसके पहले के दो महीनों में ये दर 6.3 और 3.2 प्रतिशत थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2022-23 में एलएफपीआर बढ़ कर 57.9 प्रतिशत तक पहुंच गई, जबकि 2021-22 में यह दर 55.2 प्रतिशत थी। जाहिर है, ये आंकड़े एक सकारात्मक तस्वीर पेश करते हैं। लेकिन अब जरा इसी रिपोर्ट से सामने आए इस विवरण पर गौर कीजिए कि भारत में जिन लोगों को रोजगार में माना जा रहा है, उन्हें दरअसल किस तरह का रोजगार हासिल है।
सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, उसके मुताबिक कुल रोजगार प्राप्त लोगों में 57.3 प्रतिशत स्वरोजगार श्रेणी में आते हैं। 2018-19 में (यानी कोरोना महामारी के पहले) ये संख्या 52.1 प्रतिशत थी। अब नियमित वेतन मिलने वाले रोजगार वाली श्रेणी में 20.9 प्रतिशत लोग हैं। 2018-19 में यह संख्या 22.8 प्रतिशत थी। बाकी लोग कैजुअल यानी अनियमित रोजगार की श्रेणी में हैँ। प्रश्न है कि महामारी के दौरान स्वरोजगार की संख्या क्यों बढ़ी और नियमित वेतन वाले रोजगार की संख्या क्यों घटी? और इस अनुपात का आज भी उसी रूप में बने रहना क्या बताता है? यह बताता है कि उच्च आर्थिक वृद्धि दर के तमाम आंकड़ों के बावजूद रोजगार के बाजार में कोई सुधार नहीं हुआ है। भारत में स्वरोजगार से तात्पर्य बेरोजगारी को छिपाना और अर्ध-रोजगार की स्थिति होता है। अगर विकल्प हो, तो स्वरोजगार वाले लोगों की अधिसंख्या नियमित वेतन के रोजगार को अपना लेगी। इसीलिए बेरोजगारी और एलएफपीआर के आंकड़ों का आम इनसान की वास्तविक आर्थिक स्थिति से कम ही रिश्ता है।