अपने ताजा कदम से आयोग ने यही पैगाम दिया है कि जिसे जो सोचना हो, सोचता रहे- उसे उसकी कोई परवाह नहीं है। जाहिर है, जिस रेफरी को अपनी निष्पक्ष छवि की परवाह हो, वह ऐसा नजरिया नहीं अपना सकता।
भारतीय निर्वाचन आयोग की साख पर पहले से कई सवाल हैं, जिन्हें वह सिरे से नजरअंदाज करता आया है। अब उसके एक ताजा कदम से ये सवाल और गहरे होंगे। इस कदम से आयोग ने यही पैगाम दिया है कि जिसे जो सोचना हो, सोचता रहे- उसे उसकी कोई परवाह नहीं है। जाहिर है, जिस रेफरी को अपनी निष्पक्ष छवि की परवाह हो, वह ऐसा नजरिया नहीं अपना सकता। अब आयोग से यह भी पूछा जाएगा कि वह अपने विवेक से ऐसे निर्णय लेता है, इसके लिए उस पर कोई दबाव है? आखिरकार ऐसे प्रश्नों के साथ भारत में चुनावों की विश्वसनीयता और लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा हुआ है। Election Commission
ताजा मामले में आयोग ने एक नियम को बदल डाला है। नियम यह था कि अदालत ने अगर आदेश दिया, तो आयोग सार्वजनिक निरीक्षण के लिए अपने पास मौजूद सारे दस्तावेज संबंधित याचिकाकर्ता को देगा। इनमें वीडियो फुटेज भी शामिल हैं।
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अधिवक्ता महमूद प्राचा ने इसी नियम का सहारा लिया। उन्होंने पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित वीडियो फुटेज सहित सभी दस्तावेजों की मांग की। हाई कोर्ट ने उनकी गुजारिश मान ली और निर्वाचन आयोग को इन सबको उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। इसके बाद आनन-फानन में आयोग ने वो नियम ही बदल डाला। अब प्रावधान किया गया है कि दस्तावेज के तहत वीडियो फुटेज शामिल नहीं होंगे। Election Commission
कारण यह बताया गया कि मूल नियम में ऐसा प्रावधान नहीं था। इस परिवर्तन के पहले राजनीतिक दलों से कोई राय-मशविरा नहीं किया गया। इसलिए विपक्ष के इस आरोप में दम है कि नियम में बदलाव परदादारी के लिए किया गया है। हरियाणा विधानसभा चुनाव के संचालन में- खासकर ईवीएम को लेकर कांग्रेस ने कई गंभीर इल्जाम लगाए थे। वे आरोप सही थे या नहीं, ये बिल्कुल अलग मुद्दा है। मगर कोर्ट का आदेश आने के बाद संबंधित नियम में परिवर्तन ऐसा मामला है, जिससे शक पैदा होना लाजिमी है। चुनावों पर शक और सवालों का घेरा कसता जाए, यह पूरी तरह अवांछित है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि निर्वाचन आयोग उसके ऐसे कदमों से बनने वाली धारणाओं को लेकर बिल्कुल बेफिक्र है।