इस विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों के लिए बजट में जो मद तय किए, असल में उसका छोटा हिस्सा ही खर्च कर पाई। इसका एक कारण ब्याज चुकाने का बोझ बढ़ जाना है।
नरेंद्र मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के चाहे जितने दावे करती हो, उसका वास्तविक प्रदर्शन उन दावों की पुष्टि नहीं करता। किसी देश की मजबूती उसके आर्थिक ढांचे से तय होती है, जिसका सबसे प्रमुख पहलू शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में विकास है। बिना शिक्षित और स्वास्थ श्रम शक्ति के कोई देश ना तो आर्थिक तरक्की कर सकता है, और ना ही रक्षा के क्षेत्र में एक मजबूत ताकत बन सकता है। तो असल पैमाना यही है कि इन क्षेत्रों में सरकार का प्रदर्शन कैसा है। इस बारे में एक अंग्रेजी वित्तीय अखबार ने जो विश्लेषण किया है, उससे मोदी 2.0 सरकार के प्रदर्शन की एक प्रतिकूल तस्वीर उभरती है। इस विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों के लिए बजट में जो मद तय किए, असल में उसका छोटा हिस्सा ही खर्च कर पाई। इसका कारण यह रहा कि ब्याज चुकाने, और खाद्य, उर्वरक एवं अन्य पर सब्सिडी में उसे अपने बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ा।
नतीजा यह हुआ कि 2023-24 में सरकार शिक्षा पर अपने कुल खर्च का 2.52 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 1.97 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च कर पाई है। इस कार्यकाल के अन्य वर्षों में स्थिति थोड़ी ही बेहतर रही है। आवास पर इस वित्त वर्ष में कुल बजट का 3 प्रतिशत खर्च हो रहा है, जबकि 2019-20 में 4.46 प्रतिशत इस मद में खर्च हुए थे। हकीकत तो यह है कि रक्षा पर भी खर्च गिर गया है। 2019-20 में सरकार ने अपने बजट का 11.86 प्रतिशत रक्षा पर खर्च किया था, चो चालू वित्त वर्ष में 9.61 प्रतिशत रह गया है। चालू वित्त वर्ष में ब्याज चुकाने पर बजट का 23.98 प्रतिशत हिस्सा (10,79,971 करोड़ रु.) खर्च हुए हैं। जबकि सब्सिडी का खर्च 2029-20 के 8.5 प्रतिशत से बढ़ कर अब 8.32 फीसदी हो चुका है। क्या इसे अर्थव्यवस्था का सही प्रबंधन कहा जाएगा? फिर यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सरकार राजकोषीय अनुशासन भी बहाल नहीं कर पाई है। यह घाटा 3 प्रतिशत के तय लक्ष्य से काफी ज्यादा बना हुआ है।