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सरकार इतनी लाचार क्यों?

ये बातें एक तरह से सरकार की आर्थिक नीतियों की नाकामी की पुष्टि करती हैं। यह साफ है कि “धन-निर्माताओं” की धन-वृद्धि पर केंद्रित नीतियों से देश की समग्र अर्थव्यवस्था वह लाभ नहीं हुआ है, जिसका सपना सरकार दिखाती रही है।

उद्योगपतियों के सामने कोई सरकार इस रूप में लाचारी जताए, ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ होगा। कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआआई) के सम्मेनल को प्रधानमंत्री और वाणिज्य मंत्री दोनों ने संबोधित किया। नरेंद्र मोदी ने उद्योग घरानों के बढ़ते धन को देश की कामयाबी बताया। संदेश दिया कि सारी दुनिया में भारत अकेला चमकता स्थल है, जिसका उन्हें लाभ उठाना चाहिए। लेकिन पीयूष गोयल का लहजा सख्त था, और असहायता को जताने वाला भी। सरकार को कोफ्त इस बात से है कि उद्योगपति निवेश नहीं कर रहे हैं और अत्यधिक संरक्षण की मांग कर रहे हैं। गोयल ने कहा कि उद्योगपतियों के इस नजरिए के कारण सरकार ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन से मुक्त व्यापार समझौते नहीं कर पा रही है। साथ ही वह आसियान के साथ यूपीए सरकार के समय हुए मुक्त व्यापार समझौते पर दोबारा बातचीत करने में खुद को अक्षम पा रही है।

वजह यह है कि भारतीय उद्योगपति ऐसे समझौतों में शुल्क संबंधी रियायतें चाहते हैं, लेकिन इस पर तैयार नहीं होते कि संबंधित देश को भारत में भी वैसी ही सुविधा मिले। गोयल की एक और शिकायत यह है कि भारतीय उद्योगपति मेड-इन-इंडिया उत्पादों को नहीं खरीदते। बिना यह सोचे की इसका देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर क्या असर होगा, वे आयातित उत्पादों को तरजीह देते हैं। तो दो बातें साफ हैं। उद्योग जगत को राष्ट्र की प्राथमिकताओं के मुताबिक चलाने के बजाय भारत सरकार उनकी प्राथमिकताओं से खुद को बंधा पा रही है। दूसरी बात का संबंध भारत में बने उत्पादों की गुणवत्ता से जुड़ता है?

अब भारतीय उद्योगपति ही इन उत्पादों को इस्तेमाल के लायक नहीं मानते, तो विदेशी बाजारों में उन्हें कितना वजन मिलेगा? ये बातें एक तरह से सरकार की आर्थिक नीतियों की नाकामी की भी पुष्टि करती हैं। यह साफ है कि “धन-निर्माताओं” की धन-वृद्धि पर केंद्रित नीतियों से देश की समग्र अर्थव्यवस्था वह लाभ नहीं हुआ है, जिसका सपना सरकार दिखाती रही है। असलियत तो यह है कि ये नीतियां बहुसंख्यक आबादी को तबाही की तरफ ले गई हैँ। इसके बावजूद सरकार शायद ही इन पर पुनर्विचार करने को तैयार हो।

By NI Editorial

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