अब आवश्यकता देश की बहुसंख्यक जनता की वास्तविक स्थिति पर सार्वजनिक बहस की है, ताकि एक खुशहाल समाज बनाने की तरफ बढ़ा जा सके। वरना, वे हालात और गंभीर होंगे, जिनकी एक झलक चुनाव अभियान के दौरान देखने को मिली है।
पिछले दस साल में भारत के लोगों की बढ़ी मुसीबत का प्रमुख कारण उनसे बोला गया झूठ या अर्धसत्य है। खासकर ऐसा आर्थिक मामलों में हुआ है। आर्थिक आंकड़ों को उनके पूरे संदर्भ में पेश करने के बजाय उनके भीतर से चमकती सूचनाओं को चुन कर इस तरह बताया गया है, मानों सबकी जिंदगी बेहतर हो रही हो। अभी खत्म हुए चुनाव अभियान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इस दौरान ऐसे भ्रम टूटे। जमीनी स्तर पर लोगों की बढ़ती गई दुर्दशा की कहानियों को मीडिया और विश्लेषकों का वह हिस्सा भी नजरअंदाज नहीं कर पाया, जो गुलाबी तस्वीर पेश करने में सहायक बनते रहे हैं। अब चूंकि देश के राजनीतिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है, तो जरूरत यही है कि सबसे पहले यथार्थ को स्वीकार किया जाए। इस संदर्भ में एक उदाहरण पर गौर करना उचित होगा। कुछ समय पहले सरकार की तरफ से इस बात को भारत की सफलता के रूप में पेश किया गया कि भारत पर विदेशी कर्ज का बोझ सकल घरेलू उत्पाद के सिर्फ 18 प्रतिशत के बराबर है, जो जी-20 देशों के बीच सबसे कम है। मगर यह एक भ्रामक आंकड़ा है।
देश में मौजूद विदेशी संपत्तियों की तुलना में देश पर मौजूद देनदारियां लगभग 400 बिलियन डॉलर अधिक हैं। इस फर्क को सकल विदेशी निवेश स्थिति (एनआईआईपी) कहा जाता है। यह सूरत स्वस्थ नहीं है। भारत में ज्यादातर विदेशी निवेश पोर्टफोलियो या बॉन्ड एवं ऋण इन्वेस्टमेंट है। एक दूसरा उदाहरण ऊंची जीडीपी वृद्धि दर से संबंधित है। भारत में अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों से समान जीडीपी पैदा नहीं हो रही है। इनमें वित्तीय और पेशेवराना सेवाओं का योगदान सबसे बड़ा है। जबकि मैनुफैक्चरिंग, कृषि, कंस्ट्रक्शन जैसे अधिक रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों का योगदान कम बना हुआ है। ऐसा विकास जनता के हर वर्ग की समृद्धि सुनिश्चित नहीं कर सकता। बल्कि इस स्थिति में गैर-बराबरी बढ़ना लाजिमी है। अब आवश्यकता इस सच पर सार्वजनिक बहस की है, ताकि एक खुशहाल समाज बनाने की तरफ बढ़ा जा सके। वरना, वे हालात और गंभीर होंगे, जिनकी एक झलक चुनाव अभियान के दौरान देखने को मिली है।