जीवाश्म ऊर्जा का इस्तेमाल क्रमिक रूप से रोकने की कोई समयबद्ध योजना तय नहीं की गई है। इस प्रक्रिया के लिए धन और तकनीक उपलब्ध कराने के इरादे जरूर जताए गए हैं, लेकिन इस दिशा में कौन कितनी जिम्मेदारी निभाएगा, यह तय नहीं हुआ है।
संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित कॉप-28 में सभी देश जीवाश्म ऊर्जा का इस्तेमाल क्रमिक रूप से घटाने पर सहमत हुए। उनमें अक्षय ऊर्जा का उपयोग बढ़ाने पर सहमति बनी। मीडिया रिपोर्टों में इस समझौते को ऐतिहासिक बताया गया है। लेकिन खुद उन्हीं खबरों में यह बताया गया है कि जीवाश्म ऊर्जा का इस्तेमाल रोकने और अक्षय ऊर्जा को पूरी तरह अपना लेने की कोई समयसीमा या समयबद्ध योजना तय नहीं की गई है। इस प्रक्रिया के लिए धन और तकनीक उपलब्ध कराने के इरादे जरूर जताए गए हैं, लेकिन इस दिशा में कौन कितनी जिम्मेदारी निभाएगा, यह तय नहीं हुआ है। कॉप-28 में जुटे नुमाइंदों ने तापमान वृद्धि को सीमित करने संबंधी पेरिस जलवायु संधि में तय लक्ष्य के प्रति अपने को फिर से वचनबद्ध किया, इसे एक बड़ी सफलता माना गया है। 2015 में हुई पेरिस संधि में तय किया गया था कि तमाम देश ऐसे कदम उठाएंगे ताकि धरती का तापमान (औद्योगिक युग शुरू होने के समय जो औसत तापमान था, उसकी तुलना में) 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ पाए।
उसके बाद से हर साल होने वाले कॉप (संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता में शामिल पक्षों के) सम्मेलन में इस लक्ष्य को दोहराया गया है। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि आखिर इस दिशा में अब तक क्या प्रगति हुई है? दरअसल, उचित तो यह होगा कि 1992 में शुरू हुई जलवायु वार्ता के बाद से अब तक की प्रगति का जायजा लिया जाए। खुद संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में बार-बार बताया गया है कि यह प्रगति बेहद असंतोषजनक है। प्रगति की यही रफ्तार रही तो साल 2100 से बहुत पहले ही धरती का तापमान खतरनाक सीमा तक बढ़ जाएगा। समस्या यह रही है कि विकसित देश अपनी जीवन-शैली और आर्थिक हितों पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुए हैं। यूक्रेन युद्ध के बाद बने हालात में तो यूरोप में भी ऊर्जा नीतियां नकारात्मक दिशा में चली गई हैं, जो जलवायु के सवाल पर सबसे अधिक संवेदनशील था। ऐसे में यूएई में हुआ करार अच्छे इरादों के इजहार से अधिक कुछ हो पाएगा, क्या ऐसी उम्मीद रखी जा सकती है?