दरअसल, समस्या यही है कि देश में बना मौजूदा माहौल कानून-व्यवस्था की इक्का-दुक्का समस्याओं का परिणाम नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक राजनीतिक मकसद के संकेत आसानी से ढूंढे जा सकते हैँ।
यह इतिहास-सिद्ध समझ है कि अगर किसी देश या समाज को उन्माद में उलझा दिया जाए, तो फिर उसे किसी दुश्मन की जरूरत नहीं रह जाती है। जब लोगों का एक बड़ा हिस्सा हर पल हिंसक सोच में उलझा रहे और उनमें से कुछ गाहे-बगाहे असल में हिंसा करने पर उतर आएं, तो जो माहौल बनता है, उसके बीच शांति, प्रगति, विकास आदि जैसी बातों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। दुर्भाग्य से भारत उसी दौर में प्रवेश करता दिख रहा है। उससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन लोगों को देश की जनता ने राजकाज चलाने का दायित्व सौंपा है, वे ऐसी घटनाओं की निंदा करना तो दूर, कई बार उसे स्वीकृति प्रदान करते नजर आते हैँ। उसका ही नतीजा जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस में हुई अत्यंत दुखद घटना है। देश में कुछ ‘पाकिस्तान से संचालित होते हैं’ और अगर यहां रहना है, तो किन्हीं खास नेताओं को ही वोट देना होगा, अगर ये बातें गोलियां दाग कर कही जाने लगें, तो फिर यही कहा जाएगा कि नफरत का उन्माद हद पार करने लगा है।
अधिक दुखद यह है कि ऐसी भावनाएं सुरक्षाकर्मियों में प्रवेश करने लगी हैं, जिन पर देश में शांति और संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा की बड़ी जिम्मेदारी है। जिस रोज यह घटना हुई, उसी दिन हरियाणा के नूह में एक धार्मिक यात्रा निकाल रहे लोगों की इस जिद से दंगा भड़क गया कि दूसरे समुदाय के लोग उनका स्वागत करें। इसके एक दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के बरेली में एक अन्य धार्मिक यात्रा में शामिल लोगों ने दूसरे धर्म के पवित्र स्थल के सामने से गुजरने की जिद की, तो वहां जिन पुलिस अधिकारी ने अपना कर्त्तव्य निभाया, दंडित करते हुए उनका ही तबादला कर दिया गया। यह सब उस समय हो रहा है, जब मणिपुर में नस्लीय विभाजन गृह युद्ध जैसी स्थिति बना चुका है। वहां जो हुआ, उसके पीछे राजनीतिक परियोजना के संकेत ढूंढना कठिन नहीं है। दरअसल, समस्या यही है कि देश में बना माहौल कानून-व्यवस्था की इक्का-दुक्का समस्याओं का परिणाम नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक राजनीतिक मकसद के संकेत आसानी से ढूंढे जा सकते हैँ।