लोकसभा में हुई चर्चा पर सियासी तू तू-मैं मैं ही हावी रही। संविधान की तारीफ, अनेक संदर्भों में इसके अयथार्थ महिमामंडन की आम होड़ और उन कसौटियों पर दूसरे पक्ष को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति से संसदीय बहस उबर नहीं पाई।
संविधान की 75वीं सालगिरह पर संसद में विशेष चर्चा का आयोजन तय हुआ, तो सामान्य स्थितियों में यही अपेक्षा होती कि इस संविधान के तहत 75 साल के अनुभवों पर सदस्य गंभीरता से मंथन करेंगे। इस दौरान वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था की उपलब्धियों और नाकामियों का ठोस आकलन किया जाएगा, ताकि भविष्य को बेहतर बनाने पर विचार-विमर्श हो सके। लेकिन ये सामान्य दिन नहीं हैं। इसमें संविधान भी सियासी मुद्दा है। पक्ष और विपक्ष में होड़ यह बताने की है कि किसने संविधान की भावना का ज्यादा उल्लंघन किया है।
लोकसभा में हुई चर्चा पर यह सियासी होड़ ही हावी रही। संविधान की तारीफ, अनेक संदर्भों में इसके अयथार्थ महिमामंडन की आम होड़ और उन कसौटियों पर दूसरे पक्ष को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति से संसदीय बहस उबर नहीं पाई। चर्चा की शुरुआत करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ही दिशा तय कर दी, जब उन्होंने इमरजेंसी का विस्तार से उल्लेख किया और कांग्रेस पर इल्जाम लगाया कि उसने हमेशा संविधान के ऊपर सत्ता को तरजीह दी है। इसके बाद प्रधानमंत्री के भाषण तक सारी चर्चा जवाब, आरोप और प्रत्यारोपों में उलझी रही। राहुल गांधी सहित तमाम विपक्षी नेताओं भाजपा पर तीरे दागे और अपने-अपने अंदाज में उसे कठघरे में खड़ा किया। अब जो दिशा लोकसभा में तय हुई है, राज्यसभा की बहस उससे अलग मोड़ लेगी, इसकी आशा कम ही है।
साफ है, संविधान पर किसी सार्थक चर्चा की उम्मीद संसद से जोड़ने का कोई फिलहाल आधार नजर नहीं आता। अगर सचमुच भारतीय संविधान के अनुभवों और आज उसके सामने उपस्थित हुई चुनौतियों पर सार्थक बात करनी है, तो यह दायित्व शायद बुद्धिजीवियों और सिविल सोसायटी को ही उठाना होगा। संविधान कोई धर्म ग्रंथ नहीं होता, जिसकी आलोचनात्मक समीक्षा ना की जाए। वह आस्था का दस्तावेज नहीं है। वह वक्त के तकाजों के अनुरूप बना रहे, इसलिए आवश्यक है कि उसके हर पहलू पर हमेशा सारगर्भित चर्चा करते हुए अधिकतम आम सहमति हासिल की जाए। मगर आज ऐसी चर्चाएं सिविल सोसायटी में भी गायब हैं। नतीजतन संविधान को लेकर मिथकों की भरमार हो गई है। संसदीय बहस उन मिथकों में ही उलझी रही।