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साख नहीं, तो क्या बचा?

चुनाव आयोग

यह अपेक्षा तो रहती ही है कि तय प्रावधान का- उसकी भावना के मुताबिक पालन किया जाए। सिर्फ तभी नियुक्त व्यक्ति- और प्रकारांतर में जिस संस्था का प्रमुख उसे बनाया गया है, उसकी साख लोगों की निगाह में बनी रह सकती है।

अगर लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी की बात सच है, तो फिर यही कहा जाएगा कि पारदर्शिता और सहमति की भावना का उल्लंघन करते हुए सरकार ने मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) की नियुक्ति कर दी। चौधरी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखकर शिकायत की है कि जिस बैठक में हीरालाल समारिया को सीआईसी बनाने का फैसला हुआ, उसमें वे उपस्थित नहीं थे, क्योंकि नए सिरे से तय हुई नियुक्ति समिति की बैठक के बारे में उन्हें सूचित नहीं किया गया था। प्रावधान यह है कि सीआईसी की नियुक्ति वह कमेटी करेगी, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता, और एक केंद्रीय मंत्री शामिल होंगे। ऐसी परिस्थिति में अगर सरकार विपक्ष की राय दरकिनार करने को ठान ले, तो वह आसानी से ऐसा कर सकती है। फिर भी यह अपेक्षा तो रहती ही है कि तय प्रावधान का- उसकी भावना के मुताबिक पालन किया जाए। सिर्फ तभी नियुक्त व्यक्ति- और प्रकारांतर में जिस संस्था का प्रमुख उसे बनाया गया है, उसकी साख लोगों की निगाह में बनी रह सकती है। मगर यह साफ है कि मौजूदा केंद्र सरकार इस सामान्य जन अपेक्षा का आदर भी करने को तैयार नहीं है।

इसीलिए वर्तमान सरकार के कार्यकाल में संस्थाओं की निष्पक्षता एवं पारदर्शिता में भारी गिरावट की शिकायतें आम होती गई हैँ। इन सबका सकल परिणाम लोकतंत्र के पैमानों पर भारत का दर्जा गिरने के रूप में सामने आया है। बेशक, इन सबके बावजूद सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी मोटे तौर पर मतदाताओं एक बहुत बड़े तबके में अपना आधार बनाए रखने में अब तक कामयाब है। इससे उसे चुनावी सफलताएं मिलती रही हैं। मगर सिर्फ चुनावी बहुमत प्राप्त करना लोकतंत्र नहीं है। अवरोध एवं संतुलन की मजबूत व्यवस्था, पारदर्शिता, और मर्यादाओं का सम्मान उसके अभिन्न घटक हैं। इनके बिना चुनावी बहुमत बहुसंख्या की तानाशाही का रूप ले लेता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विवेकशील विश्व जनमत का एक बड़ा हिस्सा आज भारत को इसी रूप में देख रहा है। इस धारणा को दूर करने की जरूरत है। सरकार को समझना चाहिए कि संस्थाओं की साख है, तभी तक लोकतंत्र है।

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By NI Editorial

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