ऊर्जा का सबसे ज्यादा उपभोग करने वाले धनिक वर्ग अपने जीवन स्तर में किसी कटौती के लिए तैयार नहीं हैं। सार्वजनिक हित के प्रति उनकी यही लापरवाही जलवायु परिवर्तन रोकने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है।
आज (11 नवंबर) से अजरबैजान की राजधानी बाकू में संयुक्त राष्ट्र का 29वां जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-29) आरंभ हो रहा है। वैसे तो गुजरे 28 वर्षों में साफ हो चुका है कि हर साल होने वाला ये सम्मेलन रस्म-अदायगी भर है, लेकिन इस बार वहां होने वाली चर्चाएं कुछ ज्यादा ही खोखली मालूम पड़ेंगी। एक तो यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से दुनिया के प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देशों की फिर से जीवाश्म ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ गई है, वहीं अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के साथ जलवायु परिवर्तन से संबंधित पेरिस संधि पर फिर तलवार लटक गई है। ट्रंप जलवायु परिवर्तन को मानव निर्मित परिघटना नहीं मानते। इसलिए वे इसे रोकने के किसी उपाय के विरोधी हैं।
राष्ट्रपति के रूप में अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने अमेरिका को पेरिस संधि से निकाल लिया था। आज भी अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों का प्रति व्यक्ति सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाला देश है। वैज्ञानिकों के मुताबिक औद्योगिक युग शुरू होने के बाद से 2022 तक हुए कुल उत्सर्जन में अमेरिका का हिस्सा तकरीबन 20 फीसदी है। जब उसकी ही उत्सर्जन घटाने की कोई प्रतिबद्धता नहीं रहेगी, तो इस सदी में धरती के औसत तापमान वृद्धि को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य पूरा होना असंभव हो जाएगा।
हकीकत यह है कि दुनिया के तमाम देशों के धनिक वर्ग अपने जीवन स्तर में किसी प्रकार की कटौती के लिए तैयार नहीं हैं, जबकि ऊर्जा का सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति उपभोग ये तबके ही करते हैं। सार्वजनिक हित के प्रति उनकी यही लापरवाही जलवायु परिवर्तन रोकने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है। यह समस्या तो पहले से है, ऊपर से नई बनी परिस्थितियों ने जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंता को वैश्विक एजेंडे से लगभग बाहर ही कर दिया है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं है कि बाकू में 11 दिन तक चिंता को खूब जताई जाएगी, लेकिन वहां से कोई राह निकलेगी, इसकी गुंजाइश बहुत कम है। ज्यादा संभावना यह है कि ये आयोजन जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं को व्यक्त करने की एक रस्म-अदायगी भर बन कर रह जाएगा।