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करे कोई, भरे कोई

दुनिया के सबसे धनी एक प्रतिशत लोग उससे भी ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, जितना सबसे गरीब 66 फीसदी लोग करते हैं। ये लोग एयरकंडीशंड माहौल में रहते हैं, जबकि उनकी करनी का फल गरीबों को भुगतना पड़ रहा है।

दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम भुगत रही है। संयुक्त राष्ट्र यह ताजा चेतावनी है कि अभी जो रफ्तार है, उससे ही सब कुछ चलता रहा, तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान औद्योगिक युग शुरू होने के समय की तुलना में तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा। वैज्ञानिक दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि डेढ़ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ोतरी का मतलब विनाश है। ऐसा होना शुरू हो चुका है। इसके बावजूद दुनिया में ना सिर्फ सब कुछ यथावत चल रहा है, बल्कि अब तो दिशा भी पलट रही है। कोरोना महामारी और यूक्रेन युद्ध के बाद बनी परिस्थितियों में यूरोपीय देशों में भी वैसी ऊर्जा का चलन बढ़ने लगा है, जो पहले जलवायु की समस्या को लेकर अधिक संवेदनशील नजर आते थे। तो आखिर ऐसा कैसे और क्यों हो रहा है? हालांकि यह कोई नया तथ्य नहीं है, लेकिन एक ताजा अध्ययन रिपोर्ट ने इस पहलू को उजागर किया है। गैर-सरकारी संस्थाओं ऑक्सफेम और स्टॉकहोम इनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट ने अपने अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दुनिया के सबसे धनी एक प्रतिशत लोग उससे भी ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, जितना सबसे गरीब 66 फीसदी लोग करते हैं।

इस अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया के सात करोड़ 70 लाख लोग एक प्रतिशत अमीर की श्रेणी में आते हैं। इनमें अरबपतियों और करोड़पतियों के अलावा वे लोग शामिल हैं, जिनकी सालाना आय एक लाख 40 हजार अमेरिकी डॉलर (साढ़े 11 करोड़) से ज्यादा है। यह रिपोर्ट 2019 के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई है। उसके मुताबिक कुल कार्बन उत्सर्जन में इस एक फीसदी आबादी का हिस्सा 16 प्रतिशत है। ये वो तबका है, तो असल में दुनिया पर राज कर रहा है- जो सारी नीतियों और निर्णयों को अपने मुताबिक ढलवाने में कामयाब रहता है। यह तबक अपनी जीवन शैली पर कोई समझौता नहीं करना चाहता। रिपोर्ट में इसे कार्बन इलीट कहा गया है, जो एयरकंडीशंड माहौल में रहते हुए जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष परिणामों से बचा रहता है। जबकि उसकी करनी का असर वे आम लोग रहे हैं, जिनका उत्सर्जन में योगदान बेहद कम है।

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