केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2018 से 2022 के बीच सभी अर्धसैनिक बलों में 658 कर्मियों ने आत्म हत्या कर ली। ऐसी घटनाएं वर्षों से जारी हैं। प्रश्न यह है कि इनका कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं ढूंढा गया है?
एक ट्रेन में चार लोगों को मार देने के बाद यह दावा सामने आया कि आरोपी रेलवे पुलिसकर्म चेतन सिंह मानसिक रूप से बीमार है। हालांकि इस दावे को स्वीकार ना करने के कई ठोस तर्क हैं, इसके बावजूद संकेत हैं कि बचाव पक्ष इस दलील को लेकर आगे बढ़ेगा। चेतन सिंह के खिलाफ जाने वाला सबसे मजबूत साक्ष्य रेल मंत्रालय का दो अगस्त का बयान है, जिसमें कहा गया था कि आरोपी निजी स्तर पर अपना इलाज करवा रहा था, यह सूचना किसी आधिकारिक रिकॉर्ड में कहीं दर्ज नहीं है। लेकिन मंत्रालय ने कुछ ही घंटों के अंदर इस बयान को वापस ले लिया और कहा कि इस मामले की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनाई गई है, जो इस घटना से जुड़े सभी पहलुओं को देखेगी। रुख का इस तरह बदलना विवादास्पद है। बहरहाल, मंत्रालय के इस रुख ने भारत में सुरक्षाकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य और उसको लेकर इन बलों के प्रशासन के रुख को लेकर एक तीखी बहस छेड़ दी है।
सवाल उठा है कि क्या इन बलों का प्रशासन ऐसे मामलों को छिपाता है और क्या उसके पास अपने जवानों के दिमागी इलाज का कोई तंत्र नहीं है? यह तो एक तथ्य है सुरक्षाकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा मानसिक तनाव के बीच काम कर रहा है। खुद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। राज्य सभा में मंत्रालय ने बताया है कि 2020 में सभी केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में 3,584 कर्मियों का मानसिक इलाज चल रहा था, लेकिन 2022 में यह संख्या बढ़ कर 4,940 हो गई थी। यह दो सालों में करीब 38 प्रतिशत की उछाल है। इन आंकड़ों में बीएसएफ, सीएआईएसएफ, सीआरपीएफ, आईटीबीपी, एसएसबी और असम राइफल्स शामिल हैं। मंत्रालय ने बताया कि 2018 से 2022 के बीच सभी अर्धसैनिक बलों में 658 कर्मियों ने आत्म हत्या कर ली। ऐसी घटनाएं वर्षों से जारी हैं। प्रश्न यह है कि इनका कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं ढूंढा गया है? चेतन सिंह के सवाल पर मुमकिन है कि सरकार को कठघरे में खड़ा ना किया जाए, लेकिन इस बड़े मुद्दे पर उसके पास आखिर अपना क्या बचाव है?