संभव है कि आम मतदाताओं में किसी भी कीमत पर सत्ताधारी दल से निज़ात पाने का भाव अभी ना आया हो, मगर भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने के संकेत साफ हैं।
भाजपा नेतृत्व भले ही अपने सार्वजनिक बयानों में इस तथ्य की अनदेखी करता रहे, लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और सामान्य अवसरहीनता अब आम मतदाताओं के राजनीतिक निर्णय को प्रेरित कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को भारी झटका इन्हीं कारणों से लगा। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उसे स्वीकार करने और सबक लेने की कोई तत्परता नहीं दिखाई। तो अब सात राज्यों की 13 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में मतदाताओं ने उसे एक बार फिर झटका दिया है। स्पष्टतः ये नतीजे भी उन्हीं कारणों से प्रभावित हुए हैं। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और यहां तक कि मध्य प्रदेश के नतीजे का भी गंभीर विश्लेषण किया जाए, तो साफ होगा कि सत्ताधारी दल के प्रति लोगों में उदासीनता गहरी हो रही है।
मुमकिन है कि अभी यह भावना तीव्र आक्रोश में तब्दील ना हुई हो- यानी संभव है कि लोगों में किसी भी कीमत पर सत्ताधारी दल से निज़ात पाने का भाव ना आया हो, मगर भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने के साफ संकेत हैं। हालांकि तीर्थस्थलों के निवासियों की समस्याएं भी आम इनसान की तरह ही होती हैं, फिर भी अगर अयोध्या के बाद अब उत्तराखंड के बद्रीनाथ में भी भाजपा की हार हुई है, तो उसके प्रतीकात्मक महत्त्व को रेखांकित किया जाना लाजिमी है।
यह विडंबना ही है कि जिस रोज ये नतीजे आए, उसी दिन मुंबई में प्रधानमंत्री ने भारतीय रिजर्व बैंक की एक विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर चार साल में आठ करोड़ रोजगार पैदा होने का ढिंढोरा पीटा। जबकि हर गुजरते दिन के साथ यह साफ होता जा रहा है कि हेडलाइन प्रबंधन के ऐसे तरीके अब जमीनी स्तर पर बेअसर हो रहे हैं। उस हाल में इसी मकसद से तैयार किए गए आंकड़ों से सिर्फ भाजपा अपने लिए खुशफहमी का आवरण तैयार सकती है। ऐसे आवरणों से वह लगभग दस साल तक आम मतदाताओं को दिलासा देने में सफल रही। परंतु अब वह दौर गुजर चुका है। अब नाराजगी का इज़हार एक ट्रेंड बन रहा है। बेहतर होगा भाजपा इसे स्वीकार करते हुए वास्तविक समाधान की दिशा में आगे बढ़े।