न्यायपालिका ने दस फीसदी ईडब्लूएस आरक्षण को उचित ठहरा कर खुद इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की तय सीमा का खुद अनादर किया था। स्पष्टतः कोर्ट के उस रुख से राजनीतिक दल आरक्षण बढ़ाने का कार्ड आगे भी खेलने के लिए प्रोत्साहित हुए।
पटना हाई कोर्ट के बिहार में आरक्षण की सीमा में बढ़ोतरी को रद्द कर दिया है। इस फैसले को राजनीतिक दलों को एक सामयिक चेतावनी के रूप लेना चाहिए। बेशक आरक्षण के मामले में कोर्ट के फैसलों में एकरूपता नहीं रही है। मसलन, न्यायपालिका ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्लूएस) को दस फीसदी आरक्षण देने के निर्णय को उचित ठहरा कर खुद इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की तय सीमा का अनादर किया था। स्पष्टतः कोर्ट के उस रुख से राजनीतिक दल आरक्षण बढ़ाने का कार्ड आगे भी खेलने के लिए प्रोत्साहित हुए। उसके क्या नतीजे हुए, उसका एक बेहतरीन उदाहरण महाराष्ट्र है, जहां आरक्षण के मुद्दे पर मराठा और ओबीसी समुदाय एक दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आते हैँ। इसी बीच बिहार में जातीय सर्वेक्षण कराया गया। तत्कालीन सरकार की संवेदना- जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार के पास था और जिसमें राष्ट्रीय जनता दल भी शामिल था- अगर पिछड़ेपन और गरीबी के सामने आए आंकड़ों से सचमुच आहत हुई होती, तो वे इस समस्या के हल के लिए विकास संबंधी अपनी प्राथमिकताओं में बुनियादी बदलाव ले आते।
लेकिन उन्हें आसान समाधान आरक्षण बढ़ा देने में नजर आया। दलित, आदिवासी और ओबीसी के लिए कुल आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया। इसमें आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग यानी सवर्ण तबकों के लिए आरक्षण को भी शामिल किया जाए, तो यह आंकड़ा 75 प्रतिशत हो गया। अब हाई कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया है। मगर नई पैदा हुई परिस्थिति पर गंभीरता से विचार करने के बजाय आरजेडी नेताओं ने इस निर्णय को भाजपा को घेरने का औजार बनाने की कोशिश की है। उनका तर्क है कि उनकी मांग मान कर बिहार में आरक्षण सीमा बढ़ाने संबंधी पारित बिल को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया जाता, तो वह कोर्ट के दायरे से बाहर हो जाता। जबकि यह सच नहीं है। 2007 में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने नौवीं अनुसूची के न्यायिक समीक्षा से बाहर संबंधी प्रावधान को पलट दिया था। इसलिए बेहतर होगा कि राजनीतिक दल लोगों को बहकाने की कोशिश से बाज आएं।