Muhammad Yunus Bangladesh: उपलब्ध विकल्पों के बीच मोहम्मद युनूस संभवतः सबसे अच्छा नाम हैं। उन्होंने लघु ऋण के जरिए गरीब तबकों के सशक्तीकरण का प्रभावशाली प्रयोग किया है। वे पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप के आलोचक हैं, हालांकि मूलतः वे पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हैं।
अपने पहले मकसद में कामयाब होने के बाद बांग्लादेश के छात्र नेताओं के सामने चुनौती पैदा हुए सियासी खालीपन को भरने की है। कहा जा सकता है कि इस क्रम में इन नौजवानों परिपक्व पहल की है।
आर्थिक समस्याओं और पूर्व सरकार की तानाशाही से परेशान लोगों के असंतोष को संगठित कर एक बड़े जन आंदोलन में तब्दील करने में इन छात्र नेताओं ने केंद्रीय भूमिका निभाई।
नतीजतन, प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को देश से भागना पड़ा। अब उनकी जगह कार्यवाहक सरकार के गठन की चुनौती है।
इस सिलसिले में छात्र नेताओं ने नोबेल पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद युनूस का नाम आगे किया है। उन्होंने खुद युनूस से बात की और उन्हें अंतरिम सरकार में नेतृत्वकारी भूमिका लेने के लिए राजी किया।
सैनिक शासन बर्दाश्त नहीं करेंगे
स्पष्टतः यह परंपरागत राजनीतिक दलों के प्रति युवा वर्ग में मौजूद अविश्वास का संकेत है। छात्र नेताओं ने स्पष्ट किया है कि वे सैनिक शासन बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे जल्द से जल्द सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली चाहते हैं। साथ ही उन नीतियों को भी वे बदलना चाहते हैं, जिससे बांग्लादेश के युवाओं के सामने अवसरहीनता की स्थिति बनी है।
इस लिहाज से उपलब्ध विकल्पों के बीच मोहम्मद युनूस संभवतः सबसे अच्छा नाम हैं। उन्होंने लघु ऋण के जरिए गरीब तबकों के सशक्तीकरण का प्रभावशाली प्रयोग किया है। इसी कार्य के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
युनूस टकराव की भूमिका में रहे
वैचारिक तौर पर वे पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप की आलोचना करते रहे हैं, हालांकि बुनियादी तौर पर वे पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हैं। शेख हसीना सरकार के साथ युनूस टकराव की भूमिका में रहे। शायद इन सब कारणों से ही छात्रों की पहली पसंद वे बने हैं। जाहिर है, छात्र नेता देश में एक नई शुरुआत करना चाहते हैं।
इसके लिए उन्होंने यथासंभव प्रयास किया है, लेकिन इस दिशा में प्रगति आसान नहीं होगी। बल्कि यह आशंका अधिक मजबूत है कि चीजें घूम-फिर कर वापस वहीं पहुंच जाएंगी। इसका प्रमुख कारण मौजूदा राजनीतिक शक्तियों का चरित्र है।
उन राजनीतिक शक्तियों को किनारे लगाने के लिए एक नई वैचारिक पहल और राजनीति की जरूरत होगी। मगर उसकी जमीन फिलहाल नज़र नहीं आती।