अब चूंकि बात मुस्लिम पहचान पर आ गई है, तो स्वाभाविक नतीजा है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के समान अधिकार की आकांक्षा पर चोट की जा रही है। इस रूप में पूरब की ओर भी फिर से पाकिस्तान की धारणा साकार हो रही है।
बांग्लादेश के साथ भारत के बिगड़ते रिश्तों का दीर्घकालिक संदर्भ बनता दिख रहा है। Bangladesh में बड़ी संख्या में लोग अपने देश की पहचान 1971 के संदर्भ में देखने के बजाय 1947 के संदर्भ में देखने लगे हैं। और यह कोई छिपी बात नहीं है। देश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस इसे संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कह चुके हैं। तब उन्होंने कहा थाः ‘बांग्लादेश बना, क्योंकि लोगों का उदारवाद, बहुलवाद एवं धर्मनिरपेक्षता में गहरा यकीन था। दशकों बाद अब नई पीढ़ी उन उसूलों पर पुनर्विचार कर रही है, जैसाकि 1952 में हुआ था, जब हमारे देशवासियों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला की रक्षा का संकल्प लिया था।’
यानी 1952 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मजहबी आधार पर बने राष्ट्र को नकार कर भाषा एवं संस्कृति पर आधारित बहु-धर्मीय राष्ट्र को स्वीकार किया था। जबकि अब लोग 1947 की तरफ लौट रहे हैं, जब भारत का मजहबी आधार पर विभाजन हुआ।
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अब चूंकि बात मुस्लिम पहचान पर आ गई है, तो स्वाभाविक नतीजा है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के समान अधिकार की आकांक्षा पर चोट की जा रही है। इस रूप में पूरब की ओर भी पाकिस्तान की धारणा साकार हो रही है। यह घटनाक्रम ऐसे वक्त पर उभर कर सामने आया है, जब भारत उसे वैचारिक चुनौती देने के लिए लिहाज से सबसे कमजोर स्थिति में है। चूंकि भारत में भी अब मुख्य विमर्श हिंदू-मुसलमान पर केंद्रित है, इसलिए Bangladesh में हमेशा से मौजूद रहे, लेकिन अब सिर उठा कर सामने आ चुके महजबी कट्टरपंथी ताकतों को भी तर्क मिल रहा है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को लेकर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को अंतरराष्ट्रीय कठघरे में कड़ा करने की रणनीति पर राष्ट्रीय आम सहमति बनाने के बजाय भारत में सियासी पार्टियां इस पर राजनीतिक लाभ उठाने के अभियान में जुटी हुई हैँ। मगर इससे बांग्लादेश के हिंदुओं का भला होने के बजाय और नुकसान हो रहा है। हमारी पार्टियां यह समझने में विफल हैं कि बांग्लादेश से आ रही चुनौती बेहद गहरी है, जिसका मुकाबला संयम और दूरदर्शिता के साथ ही किया जा सकता है।