पूर्वानुमान होने के बावजूद ऐहतियाती उपाय नहीं किए जाते तो उसका यह कारण है कि जो लोग भुगतते हैं, उनकी सियासत, सार्वजनिक जीवन और मीडिया में कोई जुबान नहीं है। उनकी मुश्किलों से किसी नेता की नींद नहीं उड़ती है।
गनीमत है कि मुंबई के बांद्रा टर्मिनस स्टेशन पर एक ट्रेन में चढ़ने की धक्का-मुक्की के दौरान मची भगदड़ में 10 मजदूरों के घायल होने की खबर मीडिया की सुर्खियों में आई है। वरना, इन दिनों महानगरों के स्टेशन प्लेटफॉर्मों पर बिहार और उत्तर प्रदेश जाने वाली ट्रेनों में चढ़ने के लिए सामान्यतः ऐसी ही अफरातफरी मची हुई है। यह नहीं कहा जा सकता कि कोई यह नया घटनाक्रम है। त्योहारों को छोड़ दें, तब भी आम श्रेणी की ट्रेनों में आम लोग किसी तरह जगह पा जाने की ऐसी ही जद्दोजहद में जुटे नजर आएंगे। किसी इम्तिहान में हिस्सा लेने के लिए जब छात्रों की भीड़ टूटती है, तो त्योहारों से कम भयानक नज़ारा पैदा नहीं होता। लेकिन ये सभी मौके सुर्खियों से बाहर रहते हैं।
क्या यह हैरत की बात नहीं है कि बांद्रा की घटना के बाद मुंबई के स्टेशन प्लैटफॉर्म्स पर भीड़ नियंत्रण के उपाय लागू किए गए हैं? क्या अधिकारियों को यह पहले से नहीं पता था कि दिवाली और छठ से पहले वहां किस पैमाने पर भीड़ जुटेगी? सबको पूर्वानुमान होने के बावजूद ऐसे उपाय नहीं किए जाते या ट्रेनों की अतिरिक्त व्यवस्था नहीं की जाती, तो उसका कारण है कि जो लोग भुगतते हैं, उनकी सियासत, सार्वजनिक जीवन और मीडिया में कोई जुबान नहीं है। उनकी मुश्किलों से किसी दल या राजनेता की नींद नहीं उड़ती।
आज के दौर में ये आम लोग सिर्फ रील या वीडियो बनाने का माध्यम बन गए हैं, जिसके जरिए राजनेता अपनी जनप्रिय छवि बनाने की कोशिश करते हैं। जहां तक सियासत की बात है, तो राजनेताओं को भरोसा है कि संप्रदाय और जाति ऐसे पहलू हैं, जिनसे जुड़ी भावनाएं भड़का कर चुनावों में उनका काम चल जाएगा। नतीजतन आम श्रेणी की ट्रेनें नारकीय अवस्था में पहुंचा दी गई हैँ। अगर उनमें किसी तरह पांव रखने की जगह मिल भी जाए, तो ट्रेन गंतव्य तक सुरक्षित पहुंच ही जाएगी, यह भरोसा किसी को नहीं होता। इस हाल में क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि जिनके पास कोई चारा नहीं है, वे अब सिर पर कफ़न बांध कर ही ट्रेन में बैठने जाते हैं!