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पारदर्शिता पर परदा

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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से दो हफ्तों के अंदर बताने को कहा है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने की अधिकतम अवधि उसने क्या तय कर रखी है? क्या केंद्र इस नोटिस को गंभीरता से लेगा और इसका तत्परता से जवाब देगा?

नरेंद्र मोदी के शासनकाल में सूचना का अधिकार कानून कितना खस्ताहाल है, उसका संकेत सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से मिला है। कोर्ट ने केंद्रीय एवं राज्य सूचना आयोगों में खाली पदों को लेकर चिंता जताई और कहा- “इस तरह संस्थाओं को निष्क्रिय बना कर सरकारें सूचना के अधिकार कानून 2005 को बेअसर नहीं बना सकतीं। किसी अधिनियम के जरिए संस्थाएं स्थापित करने का क्या मकसद रह जाएगा, अगर उन्हें कामकाजी अवस्था में ना रखना हो? ” मगर केंद्र और राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों की चिंता है, ऐसा नहीं लगता। सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में दिए अपने आदेश में मुख्य सूचना आयुक्तों एवं सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की विस्तृत समयसारणी तय की थी। साथ ही नियुक्ति की पारदर्शी प्रक्रिया भी उसने निश्चित कर दी थी। लेकिन पांच साल गुजर गए, सरकारों ने उस समयसारणी या नियुक्ति प्रक्रिया को ताक पर डाल रखा है।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट अब उसी नाअमली के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका में दावा किया गया है कि आरटीआई कानून के खिलाफ केंद्र एवं राज्य सरकारों ने प्रतिगामी नजरिया अपना रखा है। आम तजुर्बा भी यही है। सरकारों की ज्यादा मेहनत इसी दिशा में रहती है कि यह कानून अधिक से अधिक बेअसर बना रहे। तो अब जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एनके सिंह की बेंच ने केंद्र से दो हफ्तों में बताने को कहा है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने की अधिकतम अवधि उसने क्या तय कर रखी है?

प्रश्न यह है कि क्या केंद्र इस नोटिस को गंभीरता से लेगा और इसका तत्परता से जवाब देगा? लोकतांत्रिक नजरिए से देखें, तो आरटीआई कानून का बनना गुजरे दशकों में भारतीय लोकतंत्र को सशक्त करने वाला सबसे प्रभावशाली कदम साबित हुआ। इससे सरकारों और प्रशासन को निर्णय एवं अमल की प्रक्रिया में पारदर्शिता बरतने के लिए मजबूर करने का औजार नागरिकों के हाथ में आया। लाजिमी है कि उसे भोथरा करने का प्रयास आरंभ से शुरू किया गया, जिसमें अब काफी कामयाबी मिल चुकी है। अब देखने की बात यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से इस औजार को फिर से धार मिल पाती है?

By NI Editorial

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