हम ऐसे मुकाम पर हैं, जब चुनावी आयोजन में अपनी सफलताओं के कारण भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है, लेकिन उस लोकतंत्र की गुणवत्ता को लेकर भारत की प्रतिष्ठा पर आंच आने की शिकायतें कई हलकों से जताई जा रही हैं।
आज से ठीक 74 साल पहले स्वतंत्र भारत ने अपने संविधान को अपनाया था। उसके लगभग साढ़े तीन साल पहले देश ब्रिटिश दासता की बेड़ियों से मुक्त हो चुका था, लेकिन तब यह स्पष्ट नहीं था कि भारतवासियों की आजादी का स्वरूप कैसा होगा। सिर्फ इसके कुछ संकेत 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महाधिवेशन में आज के ही दिन पारित पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव में निहित थे। लेकिन उन उद्देश्यों को साकार रूप देना एक चुनौती थी, जिससे उबरने का महति कार्य आजादी के बाद बनी संविधान सभा ने बखूबी पूरा किया। संविधान निर्माताओं ने भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का फैसला किया। राज्य की शक्तियों का अलगाव, नागरिकों के लिए सुपरिभाषित मूल अधिकार, संघीय व्यवस्था, और मजहब, नस्ल, जाति, लिंग आदि से परे सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार का कायदा स्थापित करने की राह देश के लिए उन्होंने तैयार की। आज तमाम देशवासियों के लिए यह सोचने का दिन है कि उस राह पर चलने में हम कितने कामयाब रहे हैं? जो उद्देश्य संविधान में तय किए गए, उन्हें प्राप्त करने की दिशा में कितनी प्रगति हुई है?
क्या आज हम उन्हीं दिशाओं में बढ़ रहे हैं या कहीं भटक गए हैं? नागरिकों के मूल अधिकार के संरक्षण, संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता के प्रश्न, और राज्य के विभिन्न अंगों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- में उचित संतुलन को लेकर आज देश के कई हिस्सों में आशंकाएं गहराई हुई हैं? इन आशंकाओं में कितना दम है? अगर इनमें थोड़ा भी दम है, तो जाहिर है कि उसके कारणों की तलाश जरूरी है। हम ऐसे मुकाम पर खड़े हैं, जब चुनावी आयोजन में अपनी सफलताओं के कारण भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की प्रतिष्ठा तो प्राप्त कर चुका है, लेकिन उस लोकतंत्र की गुणवत्ता को लेकर भारत की बन चुकी प्रतिष्ठा पर भी आंच आने की शिकायतें कई हलकों से जताई जा रही हैं। इसलिए जब आज कर्त्तव्य पथ पर गणतंत्र दिवस का मुख्य समारोह होगा और देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग अपने स्तर पर उत्सव मनाएंगे, तब बेहतर होगा कि उपरोक्त प्रश्नों पर सोचने में भी वे अपना कुछ वक्त जरूर लगाएं।