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‘खेला’ की राजनीति

बिहार

जब नीतीश कुमार ने ‘खेला’ किया और तेजस्वी यादव ने उसका जवाबी ‘खेला’ कर दिखाने का एलान किया, तो उसे हिकारत के साथ देखने के बजाय सारी इलीट चर्चा दोनों पक्षों की ‘खेला’ कर सकने की क्षमता के आकलन पर टिक गई। क्या यह लोकतंत्र है? 

भारत की सियासी चर्चाओं में ‘खेला’ शब्द संभवतः पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की देन है। तब से मीडिया की चर्चाओं से आगे बढ़ते हुए अब राजनेताओं की जुबान पर भी यह छा गया है। समाज का प्रभु वर्ग भी इसमें खूब मज़ा लेने लगा है। इस शब्द में जो अवसरवाद और अनैतिकता शामिल है, उस पर ध्यान देने की जरूरत किसी को महसूस नहीं होती। यही वजह है कि राजनेताओं का अवसरवाद और अनैतिकता अब लोगों को उनका कौशल महसूस होने लगे हैं। इसकी होड़ में जो जीत जाए, उसे सिकंदर के रूप में देखा जाने लगता है। शायद इसीलिए बिहार में जब नीतीश कुमार ने ‘खेला’ किया और तेजस्वी यादव ने उसका जवाबी ‘खेला’ कर दिखाने का एलान किया, तो उसे हिकारत के साथ देखने के बजाय सारी इलीट चर्चा दोनों पक्षों की ‘खेला’ कर सकने की क्षमता के आकलन पर टिक गई। अं

ततः सोमवार को तेजस्वी यादव की क्षमता से उम्मीद जोड़े लोगों को मायूसी हाथ लगी, जब नीतीश के पक्ष ने दिखा दिया कि मुख्यमंत्री आखिर सियासत के दांव खेलने में तेजस्वी के ‘चाचा’ हैं। विश्वासमत पर मतदान के दौरान नीतीश ना सिर्फ अपने समर्थकों को एकजुट रखने में सफल रहे, बल्कि तेजस्वी के राष्ट्रीय जनता दल के तीन विधायक भी तोड़ लिए। लेकिन मुद्दा यह है कि ‘खेला’ की इस होड़ में जनादेश की भावना का जिस तरह खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता है और लोकतंत्र का मजाक बना दिया जाता है, सार्वजनिक चर्चाओं में उसे इस तरह वैधता देना क्या इस खेल में खुद शामिल होना नहीं है? इससे भी बड़ा सवाल है कि राजनीति अगर सिर्फ सत्ता के समीकरण बैठाने का खेल बन जाए, तो क्या उसे लोकतांत्रिक कहा भी सकता है? लोकतांत्रिक राजनीति में यह अंतर्निहित है कि उसमें पार्टियां जनता के उन समूहों के हितों का प्रतिनिधित्व करें, जिनके समर्थन से उनकी हैसियत बनती है। इसके विपरीत अगर नेताओं के अपने हित सर्वोच्च हो जाएं, उन्हें साधने के लिए वे हर तरह का ‘खेला’ करने लगें, और प्रभु वर्ग में उसको उनका कौशल माना जाने लगे, तो उसका यही अर्थ होगा कि लोकतंत्र की इति-श्री हो चुकी है।

By NI Editorial

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