पटना बैठक से यह साफ हो गया कि विपक्ष का कोई समानार्थी शब्द नहीं है। ना ही यह तब तक सार्थक होगा, जब तक नीतिगत विकल्प के साथ भाजपा विरोधी पार्टियां एकजुट होंगी। फिलहाल, सब कुछ ऐड-हॉक है, जिसमें केजरीवाल जैसे जोखिम अंतर्निहित होंगे।
अरविंद केजरीवाल की विपक्ष की पटना बैठक का माहौल बिगाड़ने के मकसद से वहां गए थे। इसका संकेत उनकी पार्टी पहले से ही दे रही थी। पटना बैठक से एक दिन पहले तो उसने दिल्ली अध्यादेश के मुद्दे पर ना सिर्फ कांग्रेस पर भाजपा के साथ मिलीभगत करने का सार्वजनिक आरोप लगाया, बल्कि यह साफ कर दिया कि पटना बैठक में पार्टी पहले इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अपना रुख स्पष्ट करने को कहेगी और ऐसा नहीं हुआ तो बैठक से वॉकआउट कर जाएगी। अंततः यही हुआ। केजरीवाल इसे संघीय ढांचे की सुरक्षा से जुड़ा बुनियादी मुद्दा बताते हैं- जबकि आज भी जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली की मांग से स्वर जोड़ते हुए उनकी जुबान कांपने लगती है। पांच अगस्त 2019 को उन्होंने बिना इस राज्य की सहमति लिए उसे विभाजित करने और उसका दर्जा घटाने के अभूतपूर्व कदम का उन्होंने स्वागत किया था। ऐसे में केजरीवाल दिल्ली अध्यादेश के मसले पर संघीय ढांचे की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं- इस दावे पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है।
असल मुद्दा दीगर है। बिना नीति और राजनीतिक चरित्र का कोई अलग विकल्प पेश किए केजरीवाल खुद को नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश करना चाहते हैं, इसलिए विपक्षी गठबंधन से सीधे दूरी बनाना उन्हें माफिक नहीं लगा होगा। दूसरे वे पंजाब और दिल्ली में विपक्षी एकता के लिए कोई त्याग करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए पटना जाकर ड्रामा करना उन्हें अधिक फायदेमंद महसूस हुआ होगा। विपक्षी जमावड़े की आलोचना बहुजन समाज पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, और असद-उद्दीन औवैसी ने भी की। लेकिन वे इस प्रयास का हिस्सा नहीं थे। इसलिए उनकी आलोचना का अपना संदर्भ हो सकता है। मगर किसी प्रयास का हिस्सा बन कर उसमें पलीता लगाने वालों के लिए ही अंग्रेजी मुहावरा ब्लैक शीप का इस्तेमाल होता है। बहरहाल, पटना बैठक से यह साफ हो गया कि विपक्ष को कोई समानार्थी शब्द नहीं है। ना ही यह तब तक सार्थक होगा, जब तक नीतिगत और कार्यक्रम संबंधी विकल्प पर सहमति के साथ भाजपा विरोधी पार्टियां एकजुट होंगी। फिलहाल, सब कुछ ऐड-हॉक है, जिसमें केजरीवाल जैसे जोखिम अंतर्निहित होंगे।