पूर्वोत्तर के राज्यों की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में तभी आती हैं, जब वहां कोई हिंसा होती है, अलगाववादी आंदोलन जोर पकड़ता है या चुनाव होते हैं। इसके अलावा मुख्यधारा का मीडिया पूर्वोत्तर के घटनाक्रम से तटस्थ बना रहता है। पिछले एक महीने में कई बार मणिपुर मुख्यधारा की राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में रहा तो उसका कारण यह था कि वहां हिंसा भड़की थी। कुकी और मैती समुदाय के बीच जातीय हिंसा चल रही है, जिसमें अब तक एक सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। यह हैरान करने वाली बात है कि तीन मई को हिंसा भड़कने के बाद कई दिन तक दिल्ली खबर नहीं पहुंची थी कि वहां क्या हो रहा है। उस दिन से राज्य में इंटरनेट की सेवा बंद हुई, जो अभी तक बंद है और 15 जून तक बंद रहेगी। इस तरह से इंटरनेट बंद किए जाने के खिलाफ दो लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे लेकिन सर्वोच्च अदालत ने भी उनकी याचिका पर जल्दी सुनवाई से इनकार कर दिया। आम लोग संचार के बुनियादी साधनों से महरूम हैं और इसके बावजूद शांति बहाली नहीं हो पा रही है!
मणिपुर की हिंसा के बुनियादी कारणों और उसके समाधान के बारे में बात करने से पहले अगर हिंसा के अलग अलग पहलुओं को देखें तो बहुत चिंताजनक तस्वीर उभरती है। मणिपुर हिंसा कैसे शुरू हुई, किस तरह से उसका फैलाव पूरे प्रदेश में हो गया, कैसे इतने लंबे समय तक हिंसा चलती रही और इस दौरान कितनी बर्बरता हुई, इसकी कहानियां बेहद परेशान करने वाली हैं। हाल के दिनों में किसी भी राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन में ऐसी बर्बरता नहीं देखने को मिली, जैसी मणिपुर में मिली है। एक सात साल के बच्चे तोंसिंग हैंगिंग की बर्बर हत्या किसी भी संवेदनशील इंसान को विचलित कर सकती है। तोंसिंग को सिर में गोली लगी थी और उसे एंबुलेंस से अस्पताल ले जाया जा रहा था। एक भीड़ ने एंबुलेंस को रोक कर उसमें आग लगा दी, जिसमें सात साल के तोंसिंग, उसकी मां और एक अन्य रिश्तेदार की मौत हो गई। सोचें, किसी भी सभ्य समाज में ऐसी अमानवीय और वीभत्स घटना की कल्पना की जा सकती है? घरों में आग लगाने की कई और घटनाएं हुईं।
हिंसा की शुरुआत हाईकोर्ट के एक आदेश से हुई, जिसमें अदालत ने राज्य के बहुसंख्यक मैती समुदाय को एसटी का दर्जा देने के प्रस्ताव पर विचार करने को कहा। कुकी समुदाय ने इसका विरोध किया और अदालत के फैसले के खिलाफ आदिवासी एकजुटता मोर्चा की एक रैली निकाली। तीन मई को निकाली गई रैली से टकराव शुरू हुआ, जिसमें भयंकर हिंसा का रूप ले लिया। पहले दो दिन की हिंसा में 54 लोग मारे गए। उसके बाद आनन-फानन में सेना तैनात की गई और अर्धसैनिक बलों को नियुक्त किया गया। अब सवाल है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर हुई हिंसा स्वंयस्फूर्त थी? अभी तक ऐसा ही माना जा रहा है लेकिन असल में ऐसा नहीं है। राज्य के दोनों मुख्य जातीय समूहों कुकी और मैती के बीच जातीय टकराव का पुराना इतिहास रहा है। दोनों समुदाय एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं। कुकी इस बात से परेशान रहते हैं कि मैती समुदाय को राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्व मिलता है क्योंकि उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादा होती है। दोनों समुदाय हमेशा लड़ने के लिए तैयार रहते हैं। हाईकोर्ट के फैसले ने दोनों समुदायों के बीच की फॉल्टलाइन जाहिर हुई और बरसों से दबा आक्रोश बाहर आ गया। पूरे राज्य में हिंसा फैल गई।
पूरा राज्य किस तरह से कुकी और मैती में बंटा है, वह कई तरह से दिखा। कुकी समुदाय के विधायक तक राजधानी इंफाल छोड़ कर पहाड़ों में चले गए। उन्होंने केंद्र सरकार के सामने मणिपुर से अलग होने की मांग रखी। एक महीने से ज्यादा समय से चल रही हिंसा के बीच अब राज्य में कोई मणिपुरी नहीं है या भारतीय नहीं है। कोई पुलिसवाला, कोई अधिकारी या कोई कारोबारी नहीं है। सब कुकी हैं या मैती हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों में भी यह विभाजन है। सरकारी कर्मचारियों में भी ऐसा विभाजन है। एक हैरान करने वाली बात यह है कि एक महीने की हिंसा में सुरक्षाकर्मियों से तीन हजार हथियार छीन लिए गए। क्या हथियारबंद और प्रशिक्षित सुरक्षाकर्मी से हथियार छीन लेना इतना आसान होता है? अब पूरे राज्य में सर्च ऑपरेशन चलाया जा रहा है ताकि हथियार वापस हासिल किए जा सकें। कहीं कहीं से कुछ हथियार बरामद हुए हैं लेकिन ज्यादातर हथियार अब भी उपद्रवियों के पास हैं और यह एक बड़ा कारण है, जिससे हिंसा नहीं थम रही है। पहाड़ों, जंगलों में हथियारबंद उपद्रवी हैं और 50 हजार से ज्यादा लोग राहत शिविरों में हैं!
सोचें, मणिपुर में छह साल से ज्यादा समय से ‘डबल इंजन’ की सरकार है, जिसका दावा है कि उसने पूर्वोत्तर को मुख्यधारा से जोड़ा है और हिंसा समाप्त की है। इस दावे की हकीकत मणिपुर में दिख रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह चार दिन तक मणिपुर में रहे और बाद में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को शांति बहाली के उपाय खोजने इंफाल भेजा गया। परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पूरे घटनाक्रम पर चुप्पी साधी हुई है। उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा है। न तो हिंसा में उलझे समुदायों से कोई अपील की है और न अपनी तरफ से अलग अलग समुदायों के बीच का अविश्वास दूर करने और राजनीतिक-सामाजिक समाधान की पहल की है। एक चिंता की बात यह भी है कि सरकार इसे कानून व्यवस्था की समस्या मान कर सुलझाने की पहल कर रही है, जबकि यह एक राजनीतिक व सामाजिक समस्या है, जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
भले मैती आरक्षण के बहाने इस हिंसा की शुरुआत हुई है क्योंकि जो वर्ग पहले से लाभार्थी है उसे अपनी श्रेणी में दूसरे समुदाय का शामिल होना कबूल नहीं है। लेकिन यह मामला इतना भर नहीं है। यह जमीन का मामला है, पहाड़ और जंगल का मामला है, पहाड़ और घाटी का मामला है, प्राकृतिक संसाधनों से लेकर प्रशासन को नियंत्रित करने का मामला है, कारोबार पर कब्जे का मामला है, राजनीतिक वर्चस्व का मामला है, कुकी व मैती के साथ साथ नगा हितों का भी मामला है, जिसे सिर्फ सुरक्षा बलों के सहारे नहीं ठीक किया जा सकता है। इसके लिए राज्य और केंद्र दोनों सरकारों की ओर से संवेदनशीलता दिखाने की जरूरत है। सरकार को समस्या की गहराई और इसके विस्तार को समझते हुए सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रख कर रास्ता निकालने की जरूरत है। पूरे देश में जिस तरह बहुसंख्यकवाद की राजनीति चल रही है उसे अगर मणिपुर में लागू किया जाता है तो इसके भंयकर दुष्परिणाम होंगे। इसकी बजाय राज्य में भरोसे की राजनीतिक व्यवस्था बनाने की जरूरत है। साथ ही यह समझना होगा कि इसका कोई तात्कालिक समाधान नहीं हो सकता है। सबसे पहले सभी पक्षों बीच संवाद स्थापित करने की पहल करनी होगी ताकि कटुता और शत्रुता समाप्त की जा सके। उसके बाद ढांचागत समस्या को दूर करने की सांस्थायिक पहल करनी होगी। तात्कालिक समाधान निकलने की कोई भी पहल मामले को और उलझाएगी। जैसे अगर सरकार मैती समुदाय को एसटी में शामिल करने पर दिए गए हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करती है तो मैती समुदाय के लोग भड़केंगे और हिंसा तेज हो सकती है। इसलिए यथास्थिति बनाए रखते हुए समाधान निकालने की पहल होनी चाहिए।