3 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक ऐलान ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। उन्होंने ‘डिस्काउंटेड रेसिप्रोकल टैरिफ’ के तहत भारत समेत 100 देशों पर टैरिफ़ (शुल्क) कई गुना बढ़ाने की घोषणा की है। अब भारत से अमेरिका को जाने वाले सामान पर 26% से 27% तक ट्रंप टैरिफ़ लागू होगा।
टैरिफ़ एक प्रकार का कर होता है जो एक देश दूसरे देश से आयात किए गए सामान पर लगाता है। इसका उद्देश्य घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना होता है।
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भारत पर असर या अवसर?
हालांकि ट्रंप टैरिफ़ फैसला भारत के लिए एक झटका जरूर है, लेकिन यह अवसर भी बन सकता है। अमेरिका का औसत टैरिफ़ अब 3.3% से काफी बढ़ गया है, जबकि भारत का पहले से ही औसत टैरिफ़ 17% था।
चीन (54%), वियतनाम (46%), थाईलैंड (36%) और बांग्लादेश (37%) पर अमेरिका ने भारत की तुलना में और भी ज़्यादा टैरिफ़ लगाया है। इससे भारत के उत्पाद अमेरिकी बाज़ार में तुलनात्मक रूप से सस्ते साबित हो सकते हैं और निर्यात को बढ़ावा मिल सकता है।
डोनाल्ड ट्रंप का यह टैरिफ़ निर्णय वैश्विक व्यापार के लिए एक चुनौती तो है, लेकिन भारत जैसे देशों के लिए रणनीतिक अवसर भी पेश करता है। अब यह देखना होगा कि भारत इस मौके का उपयोग कैसे करता है।
टैरिफ होता क्या है?
टैरिफ एक प्रकार का सीमा शुल्क या कर (टैक्स) होता है, जिसे कोई देश उन वस्तुओं पर लगाता है जो विदेशों से आयात की जाती हैं। यह टैक्स आमतौर पर सरकार द्वारा आयात करने वाली कंपनियों से वसूला जाता है।
इसका मुख्य उद्देश्य दो बातों पर आधारित होता है – एक, सरकार की आय बढ़ाना, और दो, घरेलू बाजार में विदेशी सामान की खपत को नियंत्रित करना।
टैरिफ को बढ़ाकर या घटाकर देश आपस में व्यापार का संतुलन बनाए रखते हैं। जब किसी देश में किसी विशेष वस्तु पर टैरिफ बढ़ाया जाता है, तो वह वस्तु उस देश में महंगी हो जाती है। इससे उस वस्तु की मांग कम हो जाती है और देश के अपने निर्माताओं को प्रतिस्पर्धा में लाभ मिलता है।
उदाहरण के लिए, अगर भारत में बना एक डायमंड अमेरिका में ₹10 लाख में बिकता है और अमेरिका की सरकार उस पर 26% का टैरिफ लगा देती है, तो उस डायमंड की कीमत बढ़कर ₹12.60 लाख हो जाएगी।
इसकी वजह से अमेरिका में उस भारतीय डायमंड की बिक्री घट जाएगी, क्योंकि वह पहले की तुलना में महंगा हो गया है। यह विदेशी वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करता है और घरेलू उत्पादों को बढ़ावा देता है।
टैरिफ का प्रभाव
सरकार की आय में वृद्धि – टैरिफ से सरकार को अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होता है।
घरेलू उद्योग को सुरक्षा – जब विदेशी उत्पाद महंगे हो जाते हैं, तो देश के अंदर बने समान उत्पादों की मांग बढ़ती है।
आर्थिक आत्मनिर्भरता – लंबे समय में यह नीति देश को आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अग्रसर करती है।
वैश्विक व्यापार पर प्रभाव – कभी-कभी टैरिफ व्यापार युद्ध जैसी स्थितियाँ भी उत्पन्न कर सकता है, जब देश एक-दूसरे के उत्पादों पर जवाबी शुल्क लगाते हैं।
भारत के लिए यह एक अवसर क्यों ?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI) की एक रिपोर्ट के अनुसार, मौजूदा वैश्विक व्यापारिक परिस्थितियों में टैरिफ न केवल एक रुकावट है, बल्कि भारत के लिए एक अवसर भी हो सकता है।
1. टेक्सटाइल्स सेक्टर में अवसर
अगर अमेरिका चीन और बांग्लादेश से आने वाले कपड़ों पर टैरिफ बढ़ा देता है, तो भारतीय टेक्सटाइल कंपनियों को अमेरिकी बाजार में प्रवेश करने का सुनहरा मौका मिल सकता है। भारत की गुणवत्ता, कारीगरी और विविधता इस समय एक प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त साबित हो सकती है।
2. इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग
ताइवान जैसी कंपनियां सेमीकंडक्टर निर्माण में अग्रणी हैं, लेकिन यदि टैरिफ के चलते वैश्विक सप्लाई चेन में बदलाव होता है, तो भारत को पैकेजिंग, टेस्टिंग और कम लागत वाले चिप निर्माण के क्षेत्र में अपनी जगह बनाने का अवसर मिल सकता है।
3. मशीनरी और ऑटोमोबाइल्स में प्रतिस्पर्धा
चीन और थाईलैंड इन क्षेत्रों में अग्रणी हैं, लेकिन यदि अमेरिका इन देशों से आने वाली वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाता है, तो भारत के लिए उत्पादन इकाइयों को आकर्षित करना और निर्यात बढ़ाना आसान हो सकता है।
4. निवेश और उत्पादन में वृद्धि
GTRI का मानना है कि भारत इस मौके का फायदा तभी उठा सकता है जब वह अपने बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाए, व्यापार अनुकूल नीतियां लाए और विदेशी निवेशकों को आकर्षित करे।
लेकिन क्या भारत तैयार है?
यही सबसे बड़ा सवाल है। भारत में आज भी कई चुनौतियाँ हैं – जैसे धीमी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंट, लॉजिस्टिक्स में बाधाएं, श्रम कानूनों की जटिलता और नीतियों की अस्थिरता।
अगर इन सभी मुद्दों का समाधान किया जाए, तो भारत न केवल इस अवसर का लाभ उठा सकता है, बल्कि वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब बनने की दिशा में भी तेजी से आगे बढ़ सकता है।
टैरिफ की दुनिया जटिल जरूर है, लेकिन यदि इसे रणनीतिक दृष्टिकोण से समझा और अपनाया जाए, तो यह भारत के आर्थिक भविष्य को एक नई दिशा दे सकता है।
टैरिफ़ का तूफ़ान…भारत के IT सेक्टर पर
डोनाल्ड ट्रंप की आर्थिक नीतियाँ, खासकर ‘अमेरिका फर्स्ट’ के सिद्धांत पर आधारित टैरिफ़ और व्यापार समझौते, वैश्विक व्यापार प्रणाली को गहराई से प्रभावित कर रही हैं।
अमेरिकी बाजार में घरेलू निर्माण और नौकरियों को प्राथमिकता देने की नीति ने विश्वभर के देशों, विशेषकर भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों के लिए चिंता की लकीरें खींच दी हैं।
भारत का IT सेक्टर, जो वर्षों से अमेरिका में आउटसोर्सिंग सेवाएं प्रदान कर रहा है, इस टैरिफ़ तूफ़ान की सीधी चपेट में आता दिख रहा है।
वीज़ा नियमों में सख़्ती, डेटा स्थानीयकरण की माँग और व्यापार में अनिश्चितता ने इस क्षेत्र को गहरी सोच में डाल दिया है। क्या यह संकट भारत के तकनीकी क्षेत्र की विकास यात्रा को धीमा कर देगा?
भारतीय IT सेक्टर का ट्रम्प की टैरिफ नीति से सीधे तौर पर कोई संबंध नहीं है। लेकिन कई सेक्टरों में अत्यधिक टैरिफ के चलते अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी। इस कारण वहां आर्थिक मंदी जैसे हालात बन सकते है।
क्लाइंट बजट घटा सकते है। इसका असर भारतीय IT सेक्टर की आय पर हो सकता है। जिनकी आय में अमेरिकी क्लाइंट का योगदान करीब 57% होता है।
लेकिन संकट के साथ ही संभावनाओं का द्वार भी खुलता है। ट्रंप की नीतियों ने जहां एक ओर विदेशी कंपनियों के लिए अमेरिका में काम करना महंगा और मुश्किल बना दिया है, वहीं भारत के पास अपने IT इकोसिस्टम को और मजबूत करने, घरेलू मांग बढ़ाने और नए वैश्विक बाज़ारों की तलाश करने का सुनहरा मौका है।
सवाल यह है – क्या भारत अपने कौशल, नवाचार और विशाल युवा शक्ति के बल पर इस तूफ़ान को पार कर एक नई दिशा में कदम बढ़ा सकता है? क्या यह चुनौती वास्तव में छिपे हुए अवसरों का संकेत है, जहां भारत आत्मनिर्भर IT शक्ति के रूप में उभर सकता है?
भारत को किस तरह का फ़ायदा
आज की वैश्विक आर्थिक संरचना में, टैरिफ़ और व्यापार नीतियाँ किसी भी देश की निर्यात रणनीति और आर्थिक विकास पर गहरा प्रभाव डालती हैं।
अमेरिका द्वारा उठाए गए संरक्षणवादी कदम, विशेषकर ऊंचे टैरिफ़ की नीति, वैश्विक सप्लाई चेन (Global Supply Chain) में बड़ा बदलाव ला रही है। ऐसे में भारत के सामने एक दोधारी चुनौती और अवसर दोनों खड़े हैं।
ऊंचे टैरिफ़ ने उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जो विभिन्न देशों में उत्पाद बनाकर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेचती थीं। इससे भारत जैसे देशों की प्रतिस्पर्धा क्षमता भी प्रभावित हुई है। बावजूद इसके, सेवा क्षेत्र की मजबूती और कुशल मानव संसाधन की उपलब्धता भारत को एक नई भूमिका निभाने के लिए प्रेरित कर रही है।
हालांकि, आज भी भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है और वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी केवल 1.5% है, जो चिंता का विषय है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और ‘व्यापारिक संबंधों का सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला देश’ तक कह दिया था। ऐसे में यदि भारत को वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से लाभ उठाना है, तो उसे ठोस और तेज़ कदम उठाने होंगे।
भारत के लिए अवसर कहाँ हैं?
जैसा कि जीटीआरआई (Global Trade Research Initiative) के अजय श्रीवास्तव बताते हैं, अमेरिकी संरक्षणवाद की वजह से वैश्विक कंपनियां अब चीन जैसे परंपरागत हब से हटकर अन्य देशों की ओर रुख कर रही हैं।
यह भारत के लिए एक सुनहरा अवसर है कि वह खुद को एक भरोसेमंद वैकल्पिक निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) गंतव्य के रूप में प्रस्तुत करे।
श्रीवास्तव के अनुसार, “अगर भारत लॉजिस्टिक्स, आधारभूत ढांचे, और ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस में सुधार करता है और नीतिगत स्थिरता बनाए रखता है, तो वह आने वाले वर्षों में एक मजबूत वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बन सकता है।”
हालात बदलना आसान नहीं
लेकिन सिर्फ अवसर होने से लाभ नहीं होता — उसके लिए ज़रूरी है क्षमता निर्माण और रणनीतिक निवेश। काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट से जुड़े अर्थशास्त्री बिस्वजीत धर इस ओर इशारा करते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश पहले से ही इस दौड़ में भारत से आगे हैं।
उनका कहना है, “ऊंचे टैरिफ़ के चलते भारत को गार्मेंट सेक्टर में कुछ बढ़त मिल सकती है, लेकिन यह तब ही संभव होगा जब हम इस सेक्टर को प्राथमिकता देंगे। वास्तविकता ये है कि हमने इस क्षेत्र में पर्याप्त निवेश नहीं किया और इसकी क्षमताएं नहीं बढ़ाई। बिना तैयारी के, सिर्फ नीति परिवर्तनों का लाभ नहीं उठाया जा सकता।”
भारत को वैश्विक व्यापार में उभरती परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए केवल नीतिगत घोषणाओं से आगे बढ़ना होगा। ज़मीन पर बदलाव लाने होंगे — चाहे वह बुनियादी ढांचा हो, लॉजिस्टिक्स हो, या श्रम नीतियां। साथ ही, उत्पादकता बढ़ाने, निवेश को आकर्षित करने और एक स्थिर नीति वातावरण देने की ज़रूरत है।
यदि भारत इन सभी शर्तों को पूरा करने में सक्षम होता है, तो वह निश्चित रूप से आने वाले समय में वैश्विक सप्लाई चेन का अहम हिस्सा बन सकता है और आर्थिक रूप से एक नई ऊंचाई पर पहुंच सकता है।
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
भारत आज वैश्विक मंच पर अपनी आर्थिक और कूटनीतिक स्थिति को मज़बूत करने के लिए लगातार प्रयासरत है, लेकिन इसके सामने एक बड़ी और गहराती हुई चिंता है — अमेरिका के साथ बढ़ते व्यापारिक तनाव और उसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला असर।
फ़रवरी से ही भारत ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों को और मज़बूत करने की दिशा में ठोस क़दम उठाए हैं। ट्रंप प्रशासन का भरोसा जीतने के लिए भारत ने 25 अरब डॉलर तक ऊर्जा आयात बढ़ाने का वादा किया, अमेरिकी रक्षा उद्योग को सहयोग देने के संकेत दिए और अत्याधुनिक एफ़-35 लड़ाकू विमानों की खरीद पर बातचीत शुरू की।
इसके साथ ही भारत ने कई व्यापारिक रियायतें भी दीं। डिजिटल एड टैक्स (6%) को समाप्त कर दिया गया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ़ को 150% से घटाकर 100% कर दिया गया, और लग्ज़री कारों व सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में बड़ी कटौती की गई। इन प्रयासों का उद्देश्य साफ़ था — अमेरिका के साथ व्यापारिक तनाव को कम करना और द्विपक्षीय व्यापार को संतुलित करना।
लेकिन इसके बावजूद भारत अब भी टैरिफ़ वॉर से पूरी तरह से बच नहीं पाया है। अमेरिका ने भारत से होने वाले कुछ प्रमुख निर्यातों पर टैरिफ़ बढ़ा दिए हैं, जिससे इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो पार्ट्स, औद्योगिक मशीनें और समुद्री खाद्य पदार्थ (सी-फूड) जैसे क्षेत्रों को गहरी चोट पहुंच सकती है।
विशेषज्ञों की राय में चिंता की मुख्य वजहें
भारतीय विदेश व्यापार संस्थान (IIFT) के सेंटर फ़ॉर WTO स्टडीज़ के पूर्व प्रमुख, अभिजीत दास का कहना है कि यह भारत के लिए एक गंभीर झटका है। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि व्यापार वार्ताएं परस्पर टैरिफ़ राहत की दिशा में काम करेंगी, लेकिन मौजूदा हालात विपरीत दिशा में जा रहे हैं।
जहां एक ओर जेनेरिक दवाओं के क्षेत्र में भारत को अमेरिका से राहत मिली है — जो कि भारत की सबसे बड़ी दवा निर्यात श्रेणी है — वहीं दूसरी ओर, मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े अन्य क्षेत्रों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर, जो भारत की उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन योजना (PLI) का मुख्य स्तंभ है, इस टैरिफ वृद्धि से सबसे ज़्यादा प्रभावित होगा।
क्या छोटे निर्यातक टिक पाएंगे?
भारत के घरेलू निर्यातकों, विशेषकर छोटे और मध्यम उद्योगों के लिए यह स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है। ऊंचे टैरिफ़, बढ़ती लॉजिस्टिक्स लागत, और वैश्विक बाज़ार में कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच, उनके लिए अपने उत्पादों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाए रखना बेहद मुश्किल हो जाएगा।
विश्लेषकों का मानना है कि 27% तक की टैरिफ वृद्धि इन उद्यमों को बाज़ार से बाहर कर सकती है। साथ ही, व्यावसायिक ढांचे की जटिलताएं और नीतिगत अस्थिरता इस संकट को और गहरा बना सकती हैं।
निष्कर्षतः, भारत के सामने सबसे बड़ी चिंता यह है कि उसके वैश्विक व्यापार साझेदार, विशेषकर अमेरिका, के साथ संबंधों में जो खटास आ रही है, वह उसकी आर्थिक स्थिरता, निर्यात क्षेत्र और ‘मेक इन इंडिया’ जैसी प्रमुख योजनाओं को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।
भारत को इस चुनौतीपूर्ण दौर से निकलने के लिए, न केवल कूटनीतिक स्तर पर बल्कि घरेलू आर्थिक नीतियों में भी संतुलन और सुधार की सख्त ज़रूरत है।
क्या भारत इस आर्थिक दबाव से पार पाएगा, या यह व्यापारिक तनाव उसकी विकासगाथा में एक नई बाधा बनकर उभरेगा — यह देखने वाली बात होगी।
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार संबंधों में बीते कुछ वर्षों से लगातार खींचातानी देखने को मिल रही है। जहां एक ओर भारत अपनी घरेलू नीतियों के तहत आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका को इसकी कुछ शर्तें असहज कर रही हैं।
विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में व्यापारिक टैरिफ और शुल्कों को लेकर विवादों की स्थिति बनी रही। बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप द्वारा लगाए गए टैरिफ़ दरअसल भारत के साथ व्यापार वार्ता में सौदेबाज़ी की एक रणनीति थी।
हाल ही में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों द्वारा जारी की गई रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि अमेरिका भारत की व्यापार नीतियों को लेकर असंतुष्ट है।
इस रिपोर्ट में विशेष रूप से डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है, जिनमें ‘नॉन-जीएमओ सर्टिफ़िकेशन’ अनिवार्य होना प्रमुख कारण है। अमेरिका का मानना है कि ये नियम उसकी कंपनियों को भारतीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धा करने से रोकते हैं।
इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट में जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड उत्पादों को मंज़ूरी मिलने में होने वाली देरी पर भी चिंता जताई गई है। साथ ही, मेडिकल डिवाइसेज़ जैसे स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों पर सरकार द्वारा तय की गई सीमा को अमेरिकी कंपनियों के लिए हानिकारक बताया गया है।
बौद्धिक संपदा (Intellectual Property) को लेकर भी अमेरिका ने अपनी चिंता स्पष्ट की है। भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में शामिल किया गया है, जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि भारत में पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट कानूनों की कमी के कारण नवाचार को बढ़ावा नहीं मिल रहा है। अमेरिका की नज़र में यह वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए घातक है।
डेटा लोकेलाइजेशन को लेकर भारत की नीति पर भी अमेरिका ने गंभीर आपत्ति जताई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत द्वारा कंपनियों को अपने उपभोक्ताओं का डेटा भारत में ही स्टोर करने के लिए बाध्य करना व्यापार के रास्ते में एक बड़ी रुकावट बन चुका है।
इसी प्रकार, भारत की सैटेलाइट नीतियों को भी अत्यधिक नियंत्रणात्मक बताया गया है, जो विदेशी निवेश और साझेदारी के रास्ते में अड़चन बन रही हैं।
अमेरिका को आशंका है कि भारत का नीति-निर्माण धीरे-धीरे चीन जैसी संरचना की ओर बढ़ रहा है, जहाँ विदेशी कंपनियों को सीमित छूट मिलती है और घरेलू कंपनियों को प्राथमिकता दी जाती है।
व्हाइट हाउस का दावा है कि अगर भारत इन बाधाओं को हटा दे, तो अमेरिकी निर्यात में सालाना 5.3 अरब डॉलर तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
अमेरिकी अधिकारी धर का बयान इस चिंता को और स्पष्ट करता है, “इससे बुरा समय नहीं हो सकता— ट्रेड वार्ता के बीच इन मुद्दों का उठना हमारी परेशानियों को और बढ़ा देता है। यह केवल बाज़ार खोलने का मामला नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण व्यापारिक पैकेज की बात है।”
भारत से प्रतिस्पर्धा में वियतनाम या चीन जैसे देशों पर अमेरिका को बढ़त हासिल करना आसान नहीं है। इसके लिए मौके तलाशने, रणनीति बनाने और बाज़ार में मजबूती से खुद को स्थापित करने में समय लगता है। ऐसे में दोनों देशों के बीच सहमति और समझ की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक महसूस की जा रही है।
ट्रंप क्यों लगा रहे हैं टैरिफ़?
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ़ यानी आयात शुल्क को अपनी आर्थिक नीति (इकोनॉमिक पॉलिसी) का मुख्य आधार बनाया है। उनका मानना है कि टैरिफ़ के ज़रिए अमेरिका की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाया जा सकता है, घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है और विदेशी कंपनियों पर निर्भरता को कम किया जा सकता है।
ट्रंप की आर्थिक सोच साफ है — “अमेरिका फर्स्ट”। वे मानते हैं कि दशकों से अमेरिका का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है और अन्य देश अमेरिका का शोषण कर रहे हैं। वर्ष 2024 में अमेरिका लगभग 900 अरब डॉलर के व्यापार घाटे का सामना कर रहा था, जो कि ट्रंप के अनुसार एक गंभीर आर्थिक असंतुलन है।
ट्रंप का तर्क है कि टैरिफ़ लगाने से अमेरिका में आयात कम होगा और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा। इसके चलते अमेरिकी फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ेगा, रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे और देश की औद्योगिक क्षमता में सुधार होगा। इसके साथ ही सरकार के राजस्व में भी इज़ाफ़ा होगा, जिससे आर्थिक वृद्धि को गति मिल सकती है।
उन्होंने यह भी कहा है कि टैरिफ़ एक प्रकार का दबाव है जिससे विदेशी कंपनियों को मजबूर किया जा सकता है कि वे अमेरिका में निवेश करें और यहीं पर उत्पादन करें।
उन्होंने उदाहरण के तौर पर दक्षिण कोरियाई ऑटो कंपनी हुंडई का नाम लिया, जिसने मार्च 2024 में घोषणा की कि वह अमेरिका में 21 अरब डॉलर का निवेश कर रही है।
ट्रंप ने दावा किया कि यह निवेश टैरिफ़ की नीति का प्रत्यक्ष परिणाम है, क्योंकि कंपनियां अब अमेरिका में अपने प्लांट्स स्थापित कर रही हैं ताकि वे आयात शुल्क से बच सकें।
मार्च 4 को कांग्रेस में ट्रंप ने स्पष्ट रूप से कहा, “अभी तक पृथ्वी पर मौजूद हर देश ने हमें दशकों तक लूटा है. लेकिन अब हम आगे ऐसा नहीं होने देंगे।” यह बयान उनके राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और टैरिफ़ आधारित आर्थिक रणनीति को दर्शाता है।
डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ़ नीति एक दीर्घकालिक आर्थिक रणनीति का हिस्सा है जो घरेलू उद्योगों की सुरक्षा, रोज़गार के अवसरों की वृद्धि और व्यापार घाटे को कम करने पर केंद्रित है।
हालांकि इस नीति पर आलोचना भी होती है कि इससे उपभोक्ताओं को महंगे उत्पादों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन ट्रंप का विश्वास है कि लंबी अवधि में यह नीति अमेरिका को आर्थिक रूप से अधिक आत्मनिर्भर और सशक्त बनाएगी।