पितृसंबंधी दानकर्म है श्राद्ध
श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है। अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं करने वाला कृतघ्न होता है। ज्ञान व विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना ही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की सेवा को सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। भारतीय परंपरा में मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण माने गए पंच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय), पितृयज्ञ (तर्पण), देवयज्ञ (होम/हवन), बलि वैश्वदेव (भूतयज्ञ)और नृयज्ञ (अतिथि...