Economy

  • आंकड़ों के आईने में

    उत्पादक Economy में बेहतर रोजगार पैदा नहीं होंगे, तो लोग ऋण पर अधिक आश्रित होते जाएंगे, जबकि संसाधन संपन्न लोगों के पास वित्तीय संपत्तियों में निवेश के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा। भारत में यही हो रहा है।  भारतीय रिजर्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट से सामने आए तीन पहलुओं ने ध्यान खींचा है। पहली यह कि आम भारतीय परिवारों पर औसत कर्ज में बढ़ोतरी का सिलसिला थम नहीं रहा है। दूसरीः भारतीय मध्य वर्गीय परिवारों में शेयर और बॉन्ड में निवेश के प्रति आकर्षण कायम है। तीसरीः रियल एस्टेट क्षेत्र संकटग्रस्त बना हुआ है, क्योंकि उसमें निवेश के...

  • गिरता निर्यात, बढ़ता घाटा

    Economy: समाधान देश के अंदर ही पूरा सप्लाई चेन तैयार करना है। लेकिन यह धीरज के साथ दूरगामी निवेश और नियोजन से ही हो सकता है। इस दिशा में पहल का कोई संकेत नहीं दिखता। नतीजतन, व्यापार घाटा अपरिहार्य बना हुआ है। also read: ऑस्ट्रेलिया सीरीज के बीच रविचंद्रन अश्विन ने क्रिकेट को कहा अलविदा, 14 साल के सुनहरे सफर का अंत चालू वित्त वर्ष में सिर्फ दो महीने ऐसे रहे, जब वस्तु व्यापार में उसके पिछले महीने की तुलना में व्यापार घाटा कम हुआ। लेकिन अप्रैल 2024 को आधार बनाएं, तो तब से नवंबर तक घाटा कुल मिला कर बढ़ा...

  • विषमता पर दो दृष्टियां

    economic inequality: पिकेटी का सुझाव है कि भारत को जीडीपी-टैक्स अनुपात में सुधार कर अतिरिक्त संसाधन इकट्ठा करना चाहिए। उसका निवेश मुफ्त स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर को सशक्त करने में किया जाना चाहिए। यही विकसित देश बनने का रास्ता है। also read: IND vs AUS: गाबा में फ्लॉप शो! विराट, यशस्वी और गिल की नाकामी से टीम इंडिया की लुटिया डूबी बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी पर राजधानी में एक गंभीर चर्चा हुई। इसमें दो नजरिए उभर कर सामने आए। एक नजरिये की नुमानंदगी भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने की। उन्होंने कहा कि न्यायपूर्ण आर्थिक विकास...

  • ब्याज दर में कटौती समाधान नहीं है

    भारतीय रिजर्व बैंक के नए गवर्नर संजय मल्होत्रा ने कामकाज संभाल लिया है। उनको भी उसी तरह वित्त मंत्रालय का अनुभव है, जैसे उनके पूर्ववर्ती शक्तिकांत दास को था। उन्होंने छह साल तक केंद्रीय बैंक के प्रमुख का पद संभाला। उनसे पहले उर्जित पटेल गवर्नर थे। इन दोनों का कार्यकाल बहुत उतार चढ़ाव का रहा। उर्जित पटेल के समय नोटबंदी हुई थी। सरकार ने 2016 के नवंबर में पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए थे। इस तरह एक झटके में देश की 85 फीसदी मुद्रा अवैध हो गई थी। उस झटके से उबरने...

  • पीछे की ओर दौड़

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • भारत के चमकते अरबपति

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • देर से हुआ अहसास

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • जीडीपी के आकलन का बेस ईयर बदला

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • ऐसी असमानता और ऐसा शोषण

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • वित्तीयकरण का जोर

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • महंगाई ने मारा डाला है

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • चमक पर ग्रहण क्यों?

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  • सिकुड़ता हुआ मध्य वर्ग

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  • खाद्यान्नों की महंगाई नहीं रूक रही!

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  • अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी गड़बड़ है

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

  • घंटी तो बजा दी!

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  • यही तो मसला है

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  • अगस्त में एक लाख 75 हजार करोड़ जीएसटी मिली

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  • पहली तिमाही में विकास दर 6.7 फीसदी रही

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  • आंकड़ों में मिली राहत

    फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है। वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे...

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