क्लासिक फ़िल्मों के शीर्षक कौन बचाएगा?
अब सवाल है कि क्या ‘शेखर एक जीवनी’, ‘गुनाहों का देवता’, ‘राग दरबारी’, ‘मैला आंचल’, ‘तमस’, ‘चित्रलेखा’, ‘आधा गांव’, ‘काशी का अस्सी’, ‘गोदान’, ‘झूठा सच’, ‘अंधेरे बंद कमरे’ आदि को फिर से लिखा जा सकता है?... मगर फ़िल्मों के मामले में अजीब स्थिति है। दस साल बाद कोई भी उसी शीर्षक से फिर से फ़िल्म बना सकता है।... अच्छे-अच्छे अभिनेता और फ़िल्मकार इस अनैतिकता की चपेट में आ चुके हैं। कभी वे खुद इस चलन का शिकार बनते हैं तो कभी दूसरों को बनाते हैं। परदे से उलझती ज़िंदगी मुश्किल से तीन हफ़्ते पहले, यानी नवंबर की शुरूआत में, लंदन...