सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना के स्पीकर जी प्रसाद कुमार से नाराजगी जताई है और कहा है कि वे भारत राष्ट्र समिति के नौ विधायकों की अयोग्यता पर कब तक फैसला करेंगे। अदालत ने कहा है कि स्पीकर विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने तक इस मामले को लटका कर नहीं रख सकते हैं। असल में 2023 के अंत में हुए तेलंगाना विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी तो राज्य की पुरानी परंपरा के हिसाब से विपक्ष के विधायकों, सांसदों आदि ने पाला बदलना शुरू कर दिया। इसी क्रम में बीआरएस के नौ विधायक कांग्रेस में चले गए। बीआरएस ने इन विधायकों को दलबदल कानून के तहत अयोग्य ठहराने के लिए स्पीकर को आवेदन किया लेकिन स्पीकर कई महीनों से फैसला लटका कर बैठे हैं।
तभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। याद करें कैसे महाराष्ट्र में शिव सेना और एनसीपी के विधायकों की अयोग्यता पर फैसला स्पीकर ने लटका कर रखा था और सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद फैसला हुआ। झारखंड में तो बाबूलाल मरांडी की पार्टी के भाजपा में विलय के बाद तीन विधायकों की सदस्यता का मामला स्पीकर के पास पहुंचा था और लगभग पूरे पांच साल तक यह मामला स्पीकर के पास लंबित रहा। विधानसभा का कार्यकाल खत्म हो गया लेकिन उन्होंने फैसला नहीं किया। चूंरि संविधान में स्पीकर को फैसला करने के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है तो सत्तारूढ़ दल की सुविधा के हिसाब से इसको लंबित रखा जाता है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में नजीर बनानी चाहिए। जिस तरह उसने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का एक नियम बनाया और सरकार को मजबूर किया कि वह संसद में कानून बनाए, वैसा कुछ करने की जरुरत इस मामले में भी है।
पंचायती व्यवस्था की एक बदसूरत तस्वीर
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में सभी राज्यों ने महिलाओं को एक निश्चित मात्रा में आरक्षण दिया है। बिहार में सबसे पहले नीतीश कुमार ने महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया था। इससे पंचायती राज व्यवस्था में अचानक महिला प्रतिनिधियों की संख्या में बड़ी बढ़ोतरी हुई। गांवों में दबंग और मजबूत लोगो ने घर की महिलाओं को चुनाव लड़ाया और जीतने पर खुद उनकी जगह मुखिया, सरपंच या पंचायत सदस्य के रूप में काम करने लगे। शहरी निकायों में भी यही देखने को मिला कि महिला पार्षदों की जगह उनके पति काम कर रहे हैं। तभी एमपी यानी मुखिया पति और एसपी यानी सरपंच पति के पद की चर्चा हुई।
यह भी देखने को मिलता था कि महिला प्रतिनिधियों के घर के पुरूष उनके बदले सरकारी बैठकों में शामिल होते थे। जिला व प्रखंड के पदाधिकारियों को हकीकत पता होती थी लेकिन उन्होंने आंखें बंद रखी। अब छत्तीसगढ़ से एक इससे भी ज्यादा शर्मनाक तस्वीर सामने आई है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के परसवाड़ा गांव की एक तस्वीर सामने आई, जिसमें छह महिला पंचायत सदस्यों की जगह उनके पतियों ने पद की शपथ ली। कहा गया कि बड़ी संख्या में पुरुषों के बीच महिलाओं को आने में शर्म महसूस हो रही थी। तस्वीर सामने आने के बाद कई लोगों को निलंबित किया गया है। लेकिन यह सिर्फ एक पंचायत की समस्या नहीं है। लगभग हर पंचायत में इससे मिलती जुलती कहानी है। सरकारों को इस मामले में सख्त होने की जरुरत है। प्रखंड स्तर के पदाधिकारियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए। अगर महिला प्रतिनिधियों की जगह उनके पति या दूसरे पुरुष आते हैं तो अधिकारी उन पर कार्रवाई करें नहीं तो अधिकारियों पर कार्रवाई हो।