राष्ट्रीय जनता दल और नेता विपक्ष तेजस्वी यादव अभी तक लालू प्रसाद के नाम पर चुनाव लड़ने से हिचक रहे थे। उनको लग रहा था कि लालू प्रसाद का नाम एक बड़े तबके का ध्रुवीकरण करा देता है, जिसमें अगड़ी जातियों के साथ साथ वैश्य और समूची अति पिछड़ी जातियां हैं तो गैर यादव पिछड़ी जातियां भी हैं। लालू यादव का नाम 32 फीसदी मुस्लिम और यादव का वोट तो सुनिश्चित करता है लेकिन बाकी 68 फीसदी को राजद के खिलाफ एकजुट कर देता है। इसलिए कई चुनावों में देखने को मिला कि लालू प्रसाद की तस्वीर राजद के पोस्टर और होर्डिंग से गायब रहीं। लेकिन इस बार का चुनाव बदला हुआ दिख रहा है।
नीतीश कुमार के कमजोर होने से राजद की रणनीति बदली है। अब यह धारणा बन गई है कि नीतीश की मानसिक सेहत ठीक नहीं है और वे अगली बार मुख्यमंत्री नहीं बनने जा रहे हैं। इसलिए तत्काल लालू प्रसाद का नाम और उनकी राजनीतिक विरासत को आगे किया गया है। इस विरासत के प्रतिनिधि के तौर पर तेजस्वी यादव पिछले एक दशक में स्थापित हो चुके हैं। दूसरी ओर न तो जनता दल यू में कोई नेता है और न भाजपा का कोई नेता स्थापित हो पाया है। लालू प्रसाद और नीतीश की विचारधारा या सामाजिक न्याय की राजनीति में अगला चेहरा जो बिहार की राजनीति में स्थापित हुआ वह तेजस्वी का है। इसलिए जो समूह पहले लालू को और फिर नीतीश को वोट देता रहा उसका बड़ा हिस्सा तेजस्वी के साथ जा सकता है। तभी तेजस्वी यादव अब खुल कर लालू प्रसाद की उपलब्धियां बता रहे हैं और सामाजिक न्याय की उनकी राजनीति के लिए उनको भारत रत्न देने की मांग कर रहे हैं। राजद की ओर से उनको कर्पूरी ठाकुर की तरह का नेता स्थापित करने का प्रयास हो रहा है।