बिहार में इस साल चुनाव होना है और उससे पहले पटना में जो राजनीति हो रही है उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ क्या करना चाहती है? केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बयान के कोई डेढ़ महीने के बाद उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने कहा है कि बिहार में विधानसभा का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा लेकिन मुख्यमंत्री का फैसला निर्धारित प्रक्रिया के हिसाब से भाजपा का संसदीय बोर्ड करेगा। इसका क्या मतलब समझ में आता है? नेतृत्व नीतीश करेंगे लेकिन वे मुख्यमंत्री के दावेदार नहीं होंगे और दूसरे मुख्यमंत्री एनडीए का होगा तो उसका फैसला भाजपा का संसदीय बोर्ड क्यों करेगा? क्या इससे यह समझ में नहीं आता है कि भाजपा अब खुल कर यह कहने लगी है कि उसका मुख्यमंत्री बनेगा? तभी यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या नीतीश कुमार पूरी तरह से भाजपा के सामने सरेंडर कर चुके हैं?
पिछले हफ्ते नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, जिसमें नीतीश का कोई श्रेय नहीं था। सात मंत्रियों को शपथ दिलाई गई और सभी भाजपा के थे। बिहार और नीतीश की राजनीति को समझने वाला कोई भी व्यक्ति इस विस्तार को देख कर समझ जाएगा कि यह सब नीतीश की सहमति के बगैर हुआ है। अगर नीतीश कुमार के हिसाब से मंत्री बनाए जाते तो कम से कम दो लोग, मंटू पटेल और सुनील कुमार मंत्री नहीं होते। इससे पहले किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि पटना में कुर्मी एकता रैली करे। लेकिन भाजपा विधायक मंटू पटेल ने 20 फरवरी को पटना में कुर्मी एकता रैली की और 26 फरवरी को मंत्री बन गए। नीतीश के रहते भाजपा को क्यों किसी ऐसे कुर्मी नेता की जरुरत है, जो रैली करे और कुर्मियों को एक करे? इसी तरह सुनील कुमार कोईरी समाज के हैं और नालंदा से आते हैं, जहां से नीतीश कुमार आते हैं। यह भी बड़ा सवाल है कि नीतीश कुमार के गढ़ से लव कुश समीकरण के किसी नेता को मंत्री बनाने की क्या जरुरत पड़ी? वैसे भी जब कोईरी नेता सम्राट चौधरी उप मुख्यमंत्री हैं तो किसी और की जरुरत ही नहीं थी। फिर भी न सिर्फ बनाया गया, जबकि नालंदा के कोईरी को मंत्री बनाया गया। यह नीतीश के लिए चैलेंज है।
बहरहाल, सुनील कुमार और मंटू पटेल के अलावा भाजपा ने एक तेली, एक केवट और एक मारवाड़ी वैश्य को मंत्री बनाया है। इस तरह भाजपा ने नीतीश कुमार के लव कुश, अति पिछड़ा और सवर्ण वोट के समीकरण में से ही मंत्री बनाए हैं। इससे यह लग रहा है कि भाजपा स्वतंत्र रूप से राजनीति कर रही है। तभी यह कहा जाने लगा है कि चुनाव से पहले ही भाजपा बड़ा भाई बन गई है और अगर चुनाव के समय नीतीश ने पूरी तरह से सरेंडर नहीं किया और पहले से बहुत कम सीटों पर लड़ने के लिए तैयार नहीं हुए तो ऐन मौके पर भाजपा उनको अकेले लड़ने के लिए छोड़ देगी। तब उनके पास कोई विकल्प नहीं होगा। दूसरी ओर यानी राजद की ओर जाकर भी वे बहुत मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होंगे। सो, नीतीश को निपटाने और अपनी सरकार बनाने की राजनीतिक लक्ष्य के साथ भाजपा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है।