भारत आज व्हाट्सएप और हैशटैग पर जिंदा है। हम चन्द्रमा पर यान उतरने पर गर्व महसूस करते हैं। मगर चांद से बहुत नज़दीक मणिपुर हमें नज़र नहीं आता। दरअसल हम अपनी महानता के गीत इतने ज़ोर-जोर से इसलिए गाते हैं ताकि हमारा ध्यान उस दर्पण से हट सके जो हमें हमारी असलियत दिखा रहा है। आज का भारत आधा बना नहीं है और आधा बदहवास, बिफरा हो गया है। व्हाट्सएप पर झुंझला रहा है, हैशटैग्स पर मार्च कर रहा है, और प्रोपेगेंडा ही उसकी देशभक्ति है।
मुझे वह क्षण याद है जब मैंने पहलगाम हमले की खबर सुनी और दिल से निकला—“फिर से?”
शोक, भ्रम, भय के जाने-पहचाने भाव तुरंत मन पर छा गए। मन ही मन कुछ मथने लगा। लेकिन इससे पहले कि दुःख स्थिर हो पाता, कुछ और हुआ—कुछ और अधिक कुरूप। चंद घंटों में ही मानवीय पीड़ा हैशटैगों में तब्दील हो गयी। गुस्सा मीम्स के ज़रिये जाहिर होने लगा। त्रासदी, तमाशा बन गई। जिस समय धर्म और जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर, एक राष्ट्र के रूप में साझा शोक का होना चाहिए था, वह कुछ ही देर में शोर में खो गया। उसकी बजाय लौट आया, दहाड़, नाटकीय गुस्सा, तात्कालिक नैरेटिव, और वही पुराने बाइनरी में बंटी हुई मुर्गा छाप बहसें।
मौका राष्ट्रीय शोक का था। लोगों को एक-दूसरे के करीब आना था। जाति और संप्रदाय की सीमाओं के ऊपर उठना था। मगर हुआ उल्टा। वही हिंदू-मुस्लिम, वही शोरशराबा, वही तुरत-फुरत निष्कर्ष।
घटना हुए दो सप्ताह हो गए हैं। इस बीच उस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हमें जो बताया जा रहा है उसमें से कुछ सही है, कुछ अनजाने में गलत है और कुछ जानते-बूझते गलत है। सच बेजा तर्कों के शोर में दुबक गया है। जैसा कि किसी ने लिखा है, “जो असल में ज़िम्मेदार हैं उनके अलावा सभी को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।” मैंने अपने आप को सोशल मीडिया से दूर रखने की भरसक कोशिश की।
इसलिए क्योंकि इसमें रहते हुए लगातार सुनाई देगा -जंग शुरू हो गई है! यदि सोशल मीडिया की बाढ़ से नहीं बचे तो बहुत ज़्यादा स्क्रॉलिंग करने पर दिमाग जैसे गूंधा हुआ गूदा बन जाता है। सचमुच अब समय अनदेखी और अज्ञानता में जीने का है। यही आत्म-रक्षा का तरीका है।
मैंने हमले पर, कश्मीर पर लिखने से भी परहेज़ किया। आखिर इसके शोरगुल और हल्ला-बोल में यदि कोई भी ईमानदारी से कुछ कहे, तो वह हो रही ‘बकवास’ में ‘दुश्मन’ समझा जाएगा।
जॉर्ज ओरवेल ने कहा था, “धोखेबाजी की दुनिया में सच बोलना भी क्रांतिकारिता है।” मगर आज के भारत में सच, दरअसल, अप्रासंगिक बन गया है। सच्चाई को झूठ के रेपर में लपेट कर प्रस्तुत किया जाता है। अपने नैरेटिव को सही सिद्ध करने के लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जाता है। सच केवल और केवल तभी बोला जाता है जब उसका इस्तेमाल हथियार की तरह संभव हो।
और यह हर बार, लगातार होता हुआ है। जाहिर है यह बहुत थकाने वाला है। हर आतंकी हमले, हर प्राकृतिक आपदा, हर विरोध प्रदर्शन टीवी पर बहस का मुद्दा बन जाता है। हर आदमी जज है। कोई चीज़ों को समझना नहीं चाहता। कोई घावों को भरना नहीं चाहता। टीवी के परदे पर वही जाने-पहचाने चेहरे एक-दूसरे पर चीखते दिखते हैं। स्क्रिप्ट पहले से तैयार रहती है। दूसरे को दोषी ठहराओ, उसे शर्मिंदा करो। अगर आप इस भीड़ में शामिल नहीं होते तो आप देशद्रोही हैं, आपको धमकियाँ मिलेंगी, आपको ट्रोल किया जाएगा और हो सकता कि आप के खिलाफ देश के किसी भी थाने में रपट लिखवा दी जा जाए।
क्या हम सच का सामना कर पाएंगे?
युवाल नूह हरारी कहते हैं मनुष्य जाति पृथ्वी पर अपना राज इसलिए स्थापित कर सकी क्योंकि उसमें काल्पनिक कथाएं गढने और उन्हें फैलाने की क्षमता थी। हम ही काल्पनिक कहानियाँ, मिथक और विचार रच सकते हैं, उन्हें फैला सकते हैं, और लाखों लोगों को उन पर विश्वास करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। और इन कथाओं का मतलब साहित्यिक कथाएं नहीं है। ये कथाएं एक एजेंडा के तरह गढ़ी जाती हैं, इन्हें मुनाफे के लिए, उत्तेजित करने के लिए फैलाया जाता है, और समाज को बाँटने, भड़काने, चिढ़ाने के लिए उनका इस्तेमाल होता है। ये लोगों को विभाजित करती हैं, उन्हे गुस्से से भर देती हैं।
ऐसे में ‘बकवास’ का ‘विरोध’ करने वाला, उससे अलग लिखने वाला अकेला खड़ा दिखता है। वो नारों में नहीं बहता, वो हर चीज़ को ए बनाम बी के रूप में नहीं देखता है। वह अपने तरीके से सोचता है। वह जानता है कि सच को जोर-जोर से चिल्लाकर नहीं बताना पड़ता। वह जानता है कि मीनार पर खड़े होकर हमें अपने आप को देशभक्त सिद्ध नहीं करना है। वह यह भी समझता है कि चुपचाप खड़े रहना, सहमत नहीं होना भी देशभक्ति है। असली देशभक्ति अक्सर शांत असहमति में खड़ा होना भी है।
आज “भारतीय होना” अक्सर इस बात से परिभाषित होता है कि हम क्या नहीं हैं, न कि हम क्या हैं।
इस सिकुड़ी हुई पहचान में भारतीय होना मतलब—मुसलमान नहीं होना, उदार नहीं होना, कश्मीरी नहीं होना, अभिजात्य वर्ग से नहीं होना, और सबसे अहम, सवाल न पूछना आवश्यक है। आज आप सच्चे भारतीय तभी हैं जब आप मुसलमान नहीं है, आपकी सोच उदार नहीं हैं, आप कश्मीरी नहीं हैं, आप श्रेष्ठी वर्ग से नहीं हैं और आप सवाल नहीं पूछते।
राष्ट्रवाद को हर तरह से अब धर्म के साथ नत्थी कर दिया गया है। हमें अपने आप के हिंदू होने पर गर्व करना चाहिए। मगर यदि हिंदू होना ही भारतीय होना बन जाए तब क्या? इससे क्या करोड़ों लोग आहत नहीं होंगे? क्या उनमें अलगाव का भाव घर नहीं कर जाएगा? क्या राष्ट्रवाद का अर्थ है यह स्वीकार करना कि हम अमृत काल में जी रहे हैं? पर आखिर अमृत काल है क्या है? क्या उसमें पहचानें संकीर्ण होंगीं? क्या उसमें माहौल में खौफ घुला होगा? क्या असहमत होना खतरनाक होना है? क्या अमृत काल में हमें हर समय बतलाते रहा जाएगा कि हमें क्या सोचना है, न कि यह कि हमें कैसे सोचना है?
हमें गर्व से हिन्दू होना चाहिए, इसमें कोई संकोच नहीं। लेकिन जब भारतीयता और हिंदू होने के बीच फर्क मिटा दिया जाता है—सांस्कृतिक रूप में नहीं, राजनीतिक रूप में—तब यह न केवल करोड़ों लोगों को बेगाना नहीं बनाता,बल्कि राष्ट्रवाद और आस्था—दोनों को विकृत कर देता है। तब राष्ट्रवाद भूल जाता है कि उसे गर्व किस बात पर करना था।
क्या अमृत काल वो समय है जिसमें तकनीक तो बढ़ेगी, लेकिन आज़ादी घटेगी? जहां शोर तो बहुत होगा, लेकिन समझ कम होती जाएगी? जहां पहचान और संकुचित, भय एक सामान्य बात, और असहमति और अधिक खतरनाक हो जाएगी? क्या यह वो युग है जिसमें हम सूचना से डूबे रहेंगे, लेकिन ज्ञान से खाली रहेंगे? जहां हमें सोचने के लिए क्या सोचना है, यह बताया जाएगा—मगर कैसे सोचना है, यह नहीं सिखाया जाएगा?
पर यदि यही स्वर्ण काल है? यदि यही ‘अमृत काल’ है, जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं, तो पूछना पड़ेगा— किसका अमृत? किसका काल? और किस कीमत पर?
कैसा समय आ गया है हमारा!
ग्यारह साल पहले जब नई सरकार ने सत्ता संभाली थी तब उसने वादा किया था कि “दलदल सूखा देंगे”।उस कांग्रेस का वर्चस्व तोड़ा जाएगा, दिल्ली के उस जड़ पैंठाए प्रतिष्ठान को उखाड़ फेंकेंगे जिसने तबाही बनाई है। जो कुछ नया होने ही नहीं देता। लेकिन हुआ क्या?
एक नया दलदल खड़ा हुआ—और पहले से ज़्यादा आक्रामक, ज़्यादा शोरगुल वाला।
लुटियन दिल्ली के नए सत्ता वर्ग और व्यवस्था की कुलीनता अब व्हाट्सएप फारवर्ड्स की भाषा बोलती हैं, वह चौबीसो घंटे क्रोध में डूबे हुए होती हैं, और आलोचना को देशद्रोह समझते हैं।
वी. एस. नायपॉल ने भारत को कभी “जख्मी सभ्यता” बताते हुए लिखा था- एक ऐसा “दीन देश, जो दिखावटी औसतपन से भरा हुआ है, और जिसका कोई भविष्य नहीं।” यहां अत्यंत औसत लोग अपने आप को ज्ञान का कोष समझते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत का कोई भविष्य नहीं है। उन दिनों ये शब्द चुभते थे।
आज लगता है कि वह एक सटीक भविष्यवाणी थी। भारत आज व्हाट्सएप और हैशटैग पर जिंदा है। हम चन्द्रमा पर यान उतरने पर गर्व महसूस करते हैं। मगर चांद से बहुत नज़दीक मणिपुर हमें नज़र नहीं आता। दरअसल हम अपनी महानता के गीत इतने ज़ोर-जोर से इसलिए गाते हैं ताकि हमारा ध्यान उस दर्पण से हट सके जो हमें हमारी असलियत दिखा रहा है।
आज का भारत आधा बना नहीं है और आधा बदहवास, बिफरा हो गया है। व्हाट्सएप पर झुंझला रहा है, हैशटैग्स पर मार्च कर रहा है, और प्रोपेगेंडा ही उसकी देशभक्ति है।
समाज ऐसा समाज बन गया है जो अपनी कथित महानता का इसलिए बखान करता है क्योंकि उसमें अब आईने में झांकने का साहस ही नहीं बचा!
भारत के सामने ढेर सारी समस्याएं हैं – आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन, ग्लोबल वार्मिंग, महंगाई,। आर्थिक परेशानियाँ।
लेकिन इससे भी बड़ा, और कहीं अधिक मौन संकट भीतर घट रहा है! हम सोचने की शक्ति खो चुके हैं, हमने दुख को महसूस करने की क्षमता गंवा दी है, और धीरे-धीरे देख पाने की दृष्टि भी धुंधला रही है। हम सच्चाई को देख नहीं पाते, हम दूसरे के दुःख को साझा नहीं करते। हम विश्वगुरु बनना चाहते हैं। लेकिन क्या कोई गुरु वह सिखा सकता है जो वह स्वयं नहीं करता? क्या जो किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है, वह क्या नेता कहला सकता है?
तभी सच में सवाल है, हम कैसे समय में जी रहे है?
हम ऐसे समय में हैं जहां प्रोपेगेंडा को देशभक्ति समझा जाता है।
जहां सच से ज़्यादा सुरक्षित है चुप रहना।
जहां शोक को बेचने की चीज़ बना दिया गया है और असहमति को अपराध, और विचार तथा विचारों को अवैध करार दिया गया है।
हम ऐसे समय में हैं जहां संपूर्ण बने रहना मतलब है—अकेला महसूस करना।
फिर भी—हमें सोचना होगा।
हमें सूखे घास में चुभती खरपतवार बने रहना होगा,
बियाबान में उठती एक आवाज़ बने रहना होगा।
आख़िरकार, उम्मीद भी तो एक बारीक ही सही, पर एक हठ होती है,
जो हर बार टूटकर भी फिर से जुड़ने की ज़िद रखती है।
जैसा कि जेम्स बाल्डविन ने कहा था:- “हर वो चीज़ जिसे हम सामने लाते हैं, बदल नहीं जाती। लेकिन कोई भी चीज़ तब तक नहीं बदल सकती जब तक हम उसका सामना न करें।”
आईना हमारे सामने है।
अब यह हम पर है—
क्या हम आँखें खोल कर उसमें झांकने का साहस करेंगे,
या फिर बंद आँखों से लगाते रहेंगे नारे!
इसी से फैसला होना है कि भारत आगे किस समय में पहुँचेगा। आमीन (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)
Also Read: तेलंगाना में केसीआर का फिर शोर?
Pic Credit: ANI