सवाल सिर्फ हार्वड या अमेरिका का नहीं है। यह सारी दुनिया में उच्च शिक्षा की अंतरात्मा से जुड़ा मुद्दा है। जब विश्वविद्यालय सत्ता के सामने सिर झुका देते हैं, तब उनके अस्तित्व का औचित्य ही समाप्त हो जाता है।… तब वे अध्ययन का केंद्र नहीं बल्कि कीर्तन और प्रोपेगेंडा के औजार हो जाते हैं।
कुलीन-एलीट वर्ग हमेशा निशाने में रहता है। कभी दक्षिणपंथ का और कभी वह वामपंथ के जुमलों की राजनीति में पंचिंग बैग हुआ होता है। उस पर ठिकरा फोड़ कर नेता गरीब, बेपढ़, मध्यवर्ग में अपनी राजनीति चमकाते है। इन दिनों क्योंकि दक्षिणपंथी राजनीति की पौ बारह है तो डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता स्वभाविक तौर पर पढ़े-लिखों और ज्ञान-बुद्धी के लिबरल शिक्षा मंदिरों पर हमला कर रहे है। विश्वविद्यालयों, लेखकों, विचारकों और मीडिया याकि उन सभी को निशाना बना रहे है जो सत्य, शिक्षा, विवेक के गुरूकुल है। इसलिए दुनिया के आगे यह तमाशा है कि हार्वड, एमआईटी और उस जैसे समवर्ती अमेरिकी विश्वविद्यालयों के खिलाफ डोनाल्ड़ ट्रंप ने हल्ला बनाया है कि ये शिक्षा मंदिर ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के अड्डे है। ये सुधरे, सरकार का कहना माने नहीं अन्यथा भूखे मरे! जबकि इन्ही की बदौलत पिछले सवा सौ सालों में अमेरिका ज्ञान-विज्ञान-तकनीक की रिसर्च तथा खोज से दुनिया का नंबर एक देश बना है। और उसी की वजह से पूरी दुनिया, पूरी मानवता खुशहाल, अमीर और विकसित हुई है।
क्यों डोनाल्ड़ ट्रंप ऐसा कर रहे है? दरअसल ट्रंप जैसे लोग डर के साए में जीते हैं — एक लगातार, स्याह डर। डर से फिर असुरक्षा बनती है। इसलिए सत्ता में आने का मौका बना नहीं कि ऐसे नेता बेरहमी से शिक्षा मंदिरों को बदलने में जुटते है। इसलिए क्योंकि पढ़े-लिखे, बुद्धी वाले ही तो सबसे पहले आवाज़ उठाते है, सवाल करते है। ये सोचते है। सरकार से सवाल करने से नहीं डरते। इस वर्ग में चिंतक, लेखक, प्रोफेसर और आलोचक होते हैं। वे संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर होते हैं और उनके पास विचारों की ताकत होती है। इसीलिए वे एक लोकतंत्र, समाज और सभ्यता की जरूरत है मगर मनमानी करने वाले निरंकुश शासकों या निरंकुशता की ओर बढ़ते शासकों के लिए वे खतरनाक होते हैं। यही वजह से है कि सबसे पहले उन्हें चुप कराने या खत्म करने की और बढ़ते है।
याद होगा भारत में जेएनयू को विचार और विचारों की भिन्न्ताओं का शिक्षा मंदिर माना जाता था। उसे मोदी सरकार ने ‘वामपंथ का अड्डा‘ ‘भारत-विरोधी संस्थान‘ और टुकड़े-टुकड़े गेंग‘ के बोलबाले वाला स्थान ऐसे बनाया गया मानों उसमें दूसरे विचारों का, दक्षिणपंथियों, फ्रीथिकिंग वाले छात्र व प्रोफेसर है ही नहीं। असल में जेएनयू से यह चिंता थी कि क्योंकर ऐसे संस्थान बने रहे जो सत्ता की विचारधारा से अलग या अधिक प्रबल या विचारोत्तजक सोच पैदा करें।
ट्रंप का विश्वविद्यालयों के खिलाफ छेड़ा गया अभियान भी उसी नक्शेकदम पर है। उनकी रणनीति है ऐसे शिक्षा मंदिरों में पैसे की कमी बनवा दो। शिक्षकों से वैचारिक वफादारी की मांग करो, उनकी इमेज ‘असली अमेरिका‘ के विरोधी होने की बना दो।
कुलीन वर्ग के बुद्धीमानजनों से बदले की भावना में एक व्यक्तिगत प्रतिशोध भी होता है। संभ्रांत वर्ग अपने समूह में गंवार लोगों से परहेज करता है। वे भविष्य के तानाशाहों, अशिक्षित, लालची और गंवार लोगों से दूर रहते हैं। ये अपनी अलग ही दुनिया में रहते है। इसलिए इन पर निगरानी बनाना या इन पर अंकुश ट्रंप जैसे लोगों की भावनात्मक जरूरत होती है।
दरअसल कुलीन बुद्धीजीवी अपने बुलबुलों, अपनी अलग दुनिया में रहते है। ऐसा होना कुंठित और नकारे लोगों के लिए असहनीय सा होता है। हालांकि शिक्षा मंदिरों का अपनी आभा, अपने माहौल में, बुलबुलों के रूप में रहने का एक महत्व है, सार्थकता है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो वे वह नहीं कर पाएंगे जो उन्हें करने चाहिए – अर्थात, सोचना, चिंतन, जटिल समस्याओं के समाधान निकालना, सुलझाना और इतिहास को जवाबदेह बनाना। वे ही व्याख्या और आलोचना दोनों करने वाले है। जरूरत पड़ने पर आगाह करते हैं, चेताते है। क्योंकि ‘बुलबुले‘ में रहने के बावजूद वे बाहर के जीवन को बारिकी से ऑब्जर्व करते होते हैं।
इसी से तानाशाह शासक को सबसे ज्यादा डर लगता है, एलिट वर्ग को हासिल विशेषाधिकारों से नहीं बल्कि उनके नजरिए से, उनकी सोचने की क्षमता से।
हमने इतिहास से बार-बार सीखा है कि जब संभ्रात वर्ग साहस के साथ कदम उठाता है तो वह तानाशाही का प्रतिरोध करने वालों में पहला और सबसे सशक्त साबित होता हैं। इसमें विश्वविद्यालय, संभ्रात वर्ग का बतौर प्रतीक और एक गौरव होता हैं। ट्रंप जैसे तानाशाह शैक्षणिक संस्थाओं को निशाना बनाते हैं क्योंकि शिक्षा अधिकाधिक राजनीतिज्ञों की राह का रोड़ा बनती जा रही है। एक वजह यह भी है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षित हुए मतदाताओं का झुकाव प्रगतिशील और उदारवादी राजनीति की ओर अधिक होता है, जबकि जो कम पढ़े-लिखे, औपचारिक शिक्षा प्राप्त वर्ग है वे भीड़ की भेड़चाल में रूढिवादी और लोकलुभावनवादी आंदोलनों, यथास्थिति को ही पसंद करते है।
इसलिए सलाम हार्वड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष एलन गार्बर को! वे अपनी विरासत पर खरे उतरे है। वे ट्रंप को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति बने। उन्होंने ट्रंप प्रशासन के अमेरिका के उच्च शिक्षा तंत्र पर कब्जा करने और उसे अपने वश में करने के प्रयासों के आगे झुकने से साफ इंकार किया है। एलन गर्बर ने सरकार के फरमानों का पालन न करने के सिद्धांत की मशाल को जलाए रखा – ‘‘कोई भी सरकार – चाहे किसी भी राजनैतिक दल की क्यों न हो – यह हुक्म नहीं दे सकती कि निजी विश्वविद्यालय क्या पढ़ाएं, वहां शिक्षक और छात्र कौन हों और वे अपने शिक्षण और रिसर्च के क्षेत्र में क्या करें? उन्होंने राष्ट्रपति को खुला पत्र लिख अकादमिक स्वतंत्रता में सरकार के हस्तक्षेप के प्रति विरोध दर्ज कराया है।
इस तरह हार्वड ट्रंप के अपशब्द भरे डराने-धमकाने के रवैये का विरोध करने, उनकी परवाह न करने वाला, खिलाफ उठ खड़ा होने वाला पहला संस्थान बना है। उसने दूसरे शिक्षा मंदिरों को भी रास्ता दिखाया है। अमेरिका में पिछले कुछ हफ्तों में अकादमिक दुनिया की अन्य प्रमुख हस्तियों ने भी हिम्मत जुटाई, जिनमें प्रिंस्टन और वेलसेल्यिन के प्रमुख भी शामिल हैं। उन्होंने हायर शिक्षा की स्वतंत्रता पर किए जा रहे हमलों के खिलाफ कैसी रणनीति पर चलना चाहिए, इसका भी रास्ता दिखाया है।
जैसा भारत में जेएनयू के मामले में देखने को मिला। राष्ट्रपति ट्रंप ने भी अकादमिक क्षेत्र पर अपनी राजनैतिक दादागिरी का इरादा बनाया। ट्रंप प्रशासन की दलील है कि किसी भी विभाग में यदि ‘‘नजरियों की विविधता की कमी’ है तो वहां उसकी राजनैतिक सोच में बदलाव के लिए नए शैक्षणिक स्टाफ की नियुक्ति की जाए। विश्वविद्यालयों के कर्ताधर्ताओं का राजनैतिक नजरिए क्या है, इसकी ‘जांच पड़ताल‘ की जाए। अर्थात पहले जांचे कि ट्रंप जैसा सोचते है वैसे नजरिए का स्टॉफ वहां है या नहीं और नहीं तो वैसे स्टाफ की भर्ती करनी चाहिए ताकि राजनैतिक नजरियों की विविधता बढ़े।
मैंने खुद एक ऐसे विश्वविद्यालय में पढ़ाई की है जहां मुझे यह नहीं बताया गया कि मुझे क्या सोचना चाहिए बल्कि यह सिखाया गया कि मुझे कैसे सोचना चाहिए। मुझे भारतीय स्कूली शिक्षा के ‘रट्टा’ मारने के तौर-तरीके की पढ़ाई को छोड़ने के लिए कहा गया। किसी ने भी मुझे कोई राजनैतिक मंत्र नहीं दिया। मुझे ऐसा माहौल उपलब्ध कराया गया जिसमें मैं बात, संवाद कर सकूं, सवाल पूछ सकूं और स्वयं ही अपने निष्कर्ष निकाल सकूं। शिक्षा ऐसे ही होनी चाहिए। क्योंकि विचार और नजरिए लादे नहीं जा सकते – वे खोजे जाते हैं। यदि मैं अपने वामपंथ की ओर रूझान रखने वाले साथियों से अलग राजनैतिक नजरिए की ओर झुकने लगी, तो इसकी वजह यह नहीं थी कि किसी ने मुझे उस ओर धकेला। इसकी वजह यह थी कि मुझे ऐसे माहौल में विभिन्न परिप्रेक्ष्यों को जानने का अवसर मिला जहां स्वतंत्र चिंतन का सम्मान किया जाता था। और विचारधारात्मक पहरेदारी नहीं की जाती थी। किसी प्राध्यापक या विश्वविद्यालय प्राधिकारी ने मेरे राजनैतिक विचारों की ‘जांच पड़ताल‘ नहीं की। मेरी बात छोड़िए, आप में से बहुतों को यह पता नहीं होगा कि नया इंडिया के हमारे संपादक भी उस दौर में जेएनयू में रहे है जब वहां का कैंपस सीताराम येचुरी और उनके कामरेडों की विचारधारा में पूरी तरह डूबा हुआ था। लेकिन वे शिक्षा पूरी कर वहां से उनकी बातों को तोते की तरह दुहराते हुए नहीं निकले बल्कि उन्होंने अपना खुद का नजरिया बनाया। अच्छी शिक्षा, असल शिक्षा मंदिर का यही नतीजा होता है। वह छात्र और व्यक्ति के दिमाग को तेज करती है, उसे जानने, खोजने की और प्रेरित करती है। न कि आपके नजरिए और विचारों को निर्धारित करती है।
अलग-अलग विचारों को प्रोत्साहित करना, खुलकर चर्चा करना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही सार्थक शिक्षा के आवश्यक अंग हैं। लेकिन हालात तब पेचीदा हो जाते हैं, जब संतुलन कायम करने के नाम पर राजनैतिक नजरियों के लिए कोटा निर्धारित करने के फरमान जारी होते है। जब किसी की विचारधारा के कारण उसे शिक्षक या छात्र की भर्ती की योग्यता के रूप में देखा जाने लगता है तब हालात खतरनाक हो जाते हैं। वैचारिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की कोशिश में हम राजनैतिक पहचान को चेकबॉक्स बना देते हैं, जिसमें सही का निशान लगाने के बाद ही आपके लिए अवसर बनता हैं। इस तरीके से अलग-अलग विचारों की वास्तविक विविधता सुनिश्चित नहीं हो सकती। यह कहानी में बदलाव किये बगैर केवल स्क्रिप्ट को बदलने जैसा है।
लेकिन ट्रंप जैसों को समझाना किसी के भी बस की बात नहीं है!
मगर हार्वड, उसके अध्यक्ष एलन गर्बर और उनके वकीलों ने सरकार की मांगों की लंबी सूची को खारिज करने की घोषणा की है। ऐसा एक सार्वजनिक पत्र के जरिए किया। सोचे, ट्रंप प्रशासन की फ़ेडरल ग्रांट और अनुबंधों के जरिए मिलने वाली 2.2 अरब डालर से अधिक की रकम रोकने की घोषणा के बाद भी हार्वड घबराया नहीं। यह कोलंबिया विश्वविद्यालय के रवैये के ठीक विपरीत था जो 40 करोड़ डालर के संघीय अनुदान की खातिर ट्रंप की मांगों के आगे झुक गया। हार्वड ने साफ कहा है कि उसके इस रवैए की वजह यह नहीं है कि उसके पास दान की गई रकम का 53 अरब डालर का रिजर्व है, जो उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत है। उसकी असल वजह यह है कि ट्रंप प्रशासन की इन गैरजवाजिब मांगों के आगे झुकने से अमेरिका की संस्कृति को धक्का पहुंचेगा। अमेरिका में वह चौपट हो जाएगा जिसके बूते वह दुनिया का सिरमौर देश हुआ है।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि कई अन्य विश्वविद्यालय, उनके अध्यक्ष और प्राध्यापक भी डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रशासन की धमकियों के खिलाफ खड़े होंगे। क्योंकि यहां सवाल सिर्फ हार्वड या अमेरिका का नहीं है। यह सारी दुनिया में उच्च शिक्षा की अंतरात्मा से जुड़ा मुद्दा है। जब विश्वविद्यालय सत्ता के सामने सिर झुका देते हैं, तब उनके अस्तित्व का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। तब शिक्षा मंदिरों पर ताले लग जाने चाहिए। वे जिस क्षण विचारों की निगरानी और नजरियों की जांच-पड़ताल शुरू कर देते हैं, और शिक्षकों की भर्ती का आधार बौद्धिक स्तर के बजाय विचारधारा विशेष हो जाता है, उसी क्षण से ये शिक्षा केंद्र अध्ययन का स्थान नहीं बल्कि कीर्तन और प्रोपेगेंडा का औजार बन जाते हैं। भयभीत होकर झुक जाने के बाद अपने चारों ओर नजर दौड़ाने पर हमें तब अहसास होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं! कैंपसों में खामोशी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक को अमेरिका जाने की अनुमति देने के पहले उनसे वहां दिए जाने वाले उनके व्याख्यान का पूरा मसौदा प्रस्तुत करने के लिए कहा जा रहा है। क्लासों में सेंसर लागू है। हर व्यक्ति चीख-चीखकर पूछ रहा है ‘राजनैतिक विकल्प कहां है‘। लेकिन सच यह है कि विचारों की स्वतंत्रता के बिना कोई विकल्प खड़ा नहीं हो सकता। विश्वविद्यालयों की आजादी के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)