Wednesday

09-04-2025 Vol 19

ट्रंप बता रहे है वे दुनिया के दादा!

अमेरिका की मुक्ति की डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा पर मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। इसलिए क्योंकि राजनीतिज्ञों के टूलबॉक्स में अपने व्यक्तिगत अविवेकी निर्णय से देश के बदल जाने की बाते करना अब एक सामान्य बात है। एक औजार है। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी की क्रांति ट्रंप के ‘लिबरेशन डे’ की घोषणा से कमतर थी? उसमें भी भरपूर नाटकीयता थी। वह निर्णय भी जल्दबाजी में, बिना आगा-पीछा सोचे और दूरगामी नतीजों की परवाह किए बिना लिया गया था।

याद करें सन 2016 के 8 नवम्बर को रात 8 बजे मोदीजी ने अचानक टीवी पर आ कर देश को कैसे चौंकाया था। नोटबंदी का ऐलान एक झटके में सब बदल देने वाला था। हमारे-आपके पास 500 और 1000 रू के जितने नोट थे वे कागज़ का टुकड़ा बन गए। देश आर्थिक अफरातफरी में फँस गया। लेकिन हमें बताया गया कि यह निर्णय बड़े लक्ष्य के लिए, भारत को हमेशा के लिए काले धन से मुक्त कराने के मकसद से है। भारत काले धन और नकली नोटों से मुक्त हो जाएगा। आंतवादियों की आर्थिक कमर टूट जाएगी। किसी में यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि यह गलत है। और नौ साल बाद, शायद ही किसी को उसके बाद हुई परेशानियों की याद है या किसी के पास आर्थिक दुष्परिणामों का हिसाब है। लेकिन प्रधानमंत्री के फैसले से बिजली तो कडकी। हालांकि उससे राजनैतिक क्षति हुई हो ऐसा नहीं लगा।

2 अप्रैल, 2025 के दिन डोनाल्ड़ ट्रंप की बिजली वैश्विक पैमाने पर कड़की। एक झटके में ट्रंप ने ट्रंप की तरह व्यवहार करते हुए दुनिया के सभी देशों पर टैरिफ का बोझ लादा। यह 10 फीसद से शुरू होकर 50 फीसद तक होंगा। उन्होंने किसी को भी नहीं छोड़ा, किसी को भी नहीं, यहाँ तक की पेंगुइनों को भी नहीं। मगर ट्रंप ने इसे अमेरिका के इतिहास के सबसे ऐतिहासिक दिनों में से एक बताया, उस दिन को ‘लिबरेशन डे’ कहा। उनका कहना था कि इससे दुनिया भर के देशों द्वारा अमरीका को लूटने-खसोटने और बर्बाद करने का दौर ख़त्म होगा और अमेरिका को फलने-फूलने नहीं देने के कुत्सित षड़यंत्र का अंत होगा।

मगर ट्रंप की बातों को अमेरिका और दुनिया ने उतनी आसानी से स्वीकार नहीं किया जितनी आसानी ने मोदी के फैसले को भारत ने स्वीकार कर लिया था। ट्रंप ने मीडिया में डर पैदा करने के भरपूर प्रयास किए। कई मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से परेशान भी किया। मगर फिर भी ट्रंप को गुस्से और विरोध का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें एक ऐसा सनकी व्यक्ति बताया गया जो हर किसी से बदला लेने पर आमादा है। अर्थशास्त्र की समझ रखने वाले कह रहे हैं कि ट्रंप का निर्णय मूर्खतापूर्ण है। वह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिया गया लगता है जिसे आर्थिकी की दुनिया का ककहरा भी नहीं आता। नोबेल पुरस्कार से नवाज़े जा चुके अर्थशास्त्री पॉल क्रूगमैन ने कहा कि ट्रंप प्रशासन के यह दावा समझ से परे है कि टैरिफ बढ़ने से कीमतें नहीं बढ़ेगीं मगर सरकार के खजाने में अरबों डॉलर आएगे!

शनिवार को पूरे अमेरिका में लोग सड़कों पर उतरे और उन्होंने ट्रंप के “कुबेरपतियों के इशारे पर लिए गए मनमाने फैसले” का विरोध किया  है। समाचार एजेंसी रायटर ने एक सर्वेक्षण किया जिसमें यह सामने आया कि ट्रंप को पसंद करने वालों का प्रतिशत 43 तक गिर गया है, जो उनके दुबारा पद सम्हालने के बाद से सबसे कम है। मगर ट्रंप को फर्क नहीं पड़ता। जनता उनका विरोध कर रही है, ज्ञानीजन उनकी निंदा कर रहे है और उनके निर्णय के अमेरिका पर आर्थिक प्रभाव के बारे में गंभीर भविष्यवाणियाँ की जा रही थी। मगर ट्रंप मरालागो में गोल्फ खेल रहे थे। उसके पहले उन्होंने साफ़ कर दिया था कि “मेरी नीतियां नहीं बदलेंगी”

और शायद यहीं होगा। ट्रंप भी बच निकलेंगे, जैसे मोदी और उनकी सरकार बच निकले थे।

दोनों की स्थितियों में डरावनी समानताएं हैं। डोनाल्ड ट्रंप के सामने कोई चुनौती नहीं है। कांग्रेस में या तो डरे-सहमे रिपब्लिकन हैं या उनके वफादार जो यह जानते हैं कि उनका राजनैतिक भविष्य, ट्रंप के राजनैतिक भविष्य से जुड़ा हुआ है। अगर कुछ रिपब्लिकनों को लग भी रहा होगा कि ट्रंप देश को बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं तब भी उनमें से एक की भी इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वे यह बात बोल कर सोशल मीडिया पर ट्रंप और मस्क के जहर बुझे तीरों के निशाने पर आए।

टैरिफ पर ट्रंप पर निर्णय केवल एक गलत आर्थिक निर्णय नहीं है। एक व्यक्ति के रूप में वे ग़लतफ़हमी के शिकार हैं, बदले की आग में जल रहे हैं और अनावश्यक जोखिम उठा रहे हैं। क्या सचमुच उन्हें लगता है कि पूरी दुनिया पर टैरिफ लादने से अमरीका में औद्योगिकीकरण का एक नया दौर शुरू हो जायेगा?  अमेरिका के कोने-कोने में रातों-रात कारखाने ऊग आएंगे? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका में जूते सिले जाएंगे और फ़ोन एसेम्बल होंगे? अमेरिकी यह सब करने के आदी नहीं हैं। बरसों से अमेरिका का ग्राहक दूसरे देशों में सस्ते श्रम से बनाये गए उत्पादों पर निर्भर रहा है। यह रातों-रात नहीं बदल सकता। फिर, आखिर किस देश ही हिम्मत थी कि  वह अमेरिका को लूट-खसोट सके या बर्बाद कर सके? ट्रंप ने 2 अप्रैल को कहा कि वे अमेरिका को फिर से धनी बनाएंगे। मगर अमेरिका गरीब कब था?

हाँ, मगर ट्रंप के टैरिफ अब अमेरिका और कई और देशों को गरीब बना सकते हैं। ट्रंप यह दावा कर सकते हैं कि वे अमेरिकी उद्योगों की दक्षिणपूर्व एशिया से रक्षा कर रहे हैं। मगर इस प्रयास में वे अमेरीकियों के लिए खरीदारी महँगी बना देंगे। फिर भले ही वे बढ़ी हुई कीमतों का कुछ हिस्सा टैक्स घटा कर उन्हें लौटा दें। इतिहास हमें बताता है कि प्रोटेक्शनिज्म (संरक्षणवाद अर्थात आयात को महंगा बनाकर घरेलू उद्योग को प्रतियोगिता से बचाना)  की नीति बहुत कारगर नहीं होती। महामंदी (1928-1934) के दौरान भी इसने लोगो की आर्थिक तकलीफे भारी बढाई थी। तय माने अमेरिका और पूरी दुनिया में कीमतें बढेंगीं, मुद्रास्फीति में तेजी आएगी और अंततः इससे वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर भी शुरू हो सकता है। मगर ट्रंप को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाल में जब उनसे पूछा गया कि उनके निर्णय से विदेशी कारें महंगी हो जाएंगी तो उनका जवाब था कि उन्हें इसकी परवाह नहीं है। एक महीने बाद भी शायद उनका यही जवाब होगा।

मगर नए टैरिफ की घोषणा के समारोह से साफ़ था कि ट्रंप को अपने को दुनिया का दादा दिखने में कितना आनंद मिलता है। करीब एक महीने पहले उन्होंने विभिन्न वैश्विक विकास एजेंसीयों को अमेरिकी मदद बंद कर दी थी। जाहिर है कि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित दुनिया भर की गरीब होंगे। अब उन्होंने एक बार फिर दिखा दिया है कि वे गरीबों को कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा नहीं मानते हैं। दुनिया के नौंवें सबसे गरीब देश मेडागास्कर पर 47 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया है और बर्बाद हो चुके म्यांमार पर 44 प्रतिशत। यद्यपि दिखाया ऐसा गया था कि इस सारी कवायद का मुख्य निशाना चीन है मगर इसकी मार कंबोडिया, वियतनाम, थाईलैंड और लाओस जैसे देशों पर ज्यादा पड़ी है। भारत थोड़ी मार खाकर बच निकला है।

दुनिया अफरातफरी और अनिश्चितता के भंवर में कभी भी फँस सकती है। युद्ध भुला दिए गए हैं। दुनिया की निगाहें संकट की जगह तमाशे पर हैं। डोनाल्ड ट्रंप के पास अभी मनमानी करने के लिए दो साल और हैं। दो साल बाद, कांग्रेस के मध्यावधि चुनाव होंगे। टेड क्रूज़ कहते हैं कि अगर वह नहीं हुआ जिसकी ट्रंप उम्मीद कर रहे हैं तो इन चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। मगर क्या तब तक अमेरिका का संघीय प्रजातान्त्रिक ढांचा वैसा ही बना रहेगा जैसा अभी है? क्या मतदाताओं को यह मौका मिलेगा कि वे यह बता सकें कि ट्रंप ने देश का किस तरह सत्यानाश कर रहे हैं? भारत में मतदाताओं को नोटबंदी पर अपनी नाराज़गी जाहिर करने के कई मौके मिले थे। मगर मोदी फिर भी अजेय बने रहे। क्या अमेरिका वोटर भी इसी राह पर चलेंगे? या फिर वे कुछ नया करेंगे? (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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