nayaindia PM Narendra Modi सच्चाई
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सच्चाई

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इक्कीसवीं सदी भारत की उम्मीदों की थी और है। सभी को अच्छा, खुशहाल समय आता लगा था। संयोग जो शताब्दी के प्रारंभ में, 2001 में गुजरात प्रदेश नए नेतृत्व, नई राजनीति, नए तेवर और नए अंदाज में नरेंद्र मोदी की प्रयोगशाला बना। फिर वही गुजरात भारत का मानक बना। और भारत नए राजनीतिक आइडिया, शाईनिंग इंडिया, अच्छे दिनों और विकसित देश जैसे जुमलों में मगन हुआ। वाइब्रेंट इंडिया, आत्मनिर्भर इंडिया, सुरक्षित इंडिया, विकसित इंडिया, खुशहाल भारत, अमृत भारत, हिंदू भारत-श्रेष्ठ भारत, विश्वगुरू भारत जैसे जितने भी जुमले संभव थे वे लोगों ने सुने और न केवल अपने महानायक के दिवाने हुए, बल्कि वह असीम भक्ति दर्शाई कि नरेंद्र मोदी स्वयं मान बैठे कि, ‘मां के जाने के बाद मैं कन्विंस हो चुका हूं कि परमात्मा ने मुझे भेजा है। ऊर्जा बायोलोजिकल शरीर से नहीं, ईश्वर को मुझ से कोई काम लेना है, इसलिए उसने सामर्थ्य भी दी है, वही ऊर्जा देता है। ईश्वर मुझ से कुछ विशेष करवाना चाहता है’।

और सच्चाई है जो 140 करोड़ लोगों की आबादी में असंख्य यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी अवतार हैं। उनका भक्ति, अंधभक्ति में यह अंधविश्वास है कि वे विश्व नेता और विश्व गुरू हैं। 

विश्वासी हो या अविश्वासी, नरेंद्र मोदी के समय की माया है जो सभी किसी न किसी वजह से बेहाल हैं या असंतुष्ट। समय असमान्य है। समय है कि लोगों को झुलसा रहा है। और सर्वत्र बुरी तरह झुलसा रहा है। ठीक लिखा राहत इंदौरी ने कि ‘शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए, ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए’।

इस सच्चाई में यदि सदी के पहले 25 वर्षों के भारत के अनुभव पर गौर करें तो क्या तस्वीर उभरेगी? क्या हम 25 वर्षों में महज भीड़ बन कर नहीं रह गए? इसके अलावा क्या कुछ भी बन पाए? हम समय से कुछ बने हैं या समय हमें खाता हुआ है? हमारी उम्मीदों, मिलेनियम की आकांक्षाओं को निगलता हुआ है? समय ऐसा क्रूर और आग बरसाता हुआ है, जिसमें वह सब जलता हुआ है, जिनसे देश रूपी परिवार की खुशियां हैं, मेलजोल है, संवाद है, संस्कार है, मर्यादा, नैतिकता, ईमानदारी और सबका साथ-सबका मान और सत्यमेव जयते की सनातनी विरासत थी। 

अभी आजाद भारत के सौ साल पूरे नहीं हुए हैं। जितनी उम्र हुई है उसे दो हिस्सों में बांट सकते हैं। 1947 से 2000 के 53 वर्षों में भारत उस पीढ़ी की कमान में था जो अंग्रेजों के शासन में, 1947 से पहले पैदा हुए थे। उनके 53 वर्षों का 25 साल बाद अब हम मूल्यांकन कर सकते हैं। और उससे साफ जाहिर होगा कि उन 53 वर्षों के पहले 25 वर्ष नेहरू युग का स्वर्णकाल था तो उसके बाद के 25 साल रजत काल! वह क्रमिक परिवर्तनों का समय था। लोकतंत्र, राजनीति, समाज और आर्थिकी की नई शुरुआत में विचारों, प्रयोगों और कोशिशों का ईमानदारी भरा वक्त था।

नेहरू का समय यदि आदर्शों, मान्यताओं, मूल्यों, राजनीतिक शुचिता, ईमानदारी, सहज-सरल और समन्वयवादी राजनीति का था तो उन्हीं के वक्त नेतृत्व की तैयार हुई पीढ़ी भी सार्वजनिक जीवन में सज्जनता, सहजता, सरलता, नैतिकता और ईमानदारी के व्यवहार से लोगों की लोकतंत्र में आस्था और भागीदारी बढ़वाते हुए थी। समय का सत्य है कि लालबहादुर शास्त्री से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह याकि आजादी से पूर्व जन्मे नेताओं ने अपने स्वार्थों, अपने अहंकार को कभी उन मर्यादाओं और उस आचरण पर हावी नहीं होने दिया, जिससे अखिल भारतीय पैमाने में राजनीति फूहड़, विकृत और कलुषित बने। झूठ का बोलाबाला हो। व्यवस्था और सिस्टम मनमानेपन में रंग जाए। भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, शिक्षित निरक्षरता, विषमता, भेदभाव और उत्पीड़न से जीवन का हर मंजर करप्ट और काला हो जाए। 

इसलिए त्रासद है लेकिन सत्य है कि आजादी बाद पैदा हुई भारत की पहली पीढ़ी उस सफर के, उन सपनों के भस्मासुर है जो पूर्वज भारतीयों व स्वतंत्रता सेनानियों का संकल्प था।

सचमुच बहुत खराब। आजादी बाद की भारत संतानों ने बहुत कम समय में ही बतौर नेता और मतदाता देश को ऐसा बीमार बनाया है कि कौम में सोचने-समझने-अनुभव की सत्यताओं को बूझने की क्षमता ही नहीं बची। आजादी बाद के पैदा हुए भारतीयों में किसी भी विचार, किसी भी पार्टी या विविध क्षेत्रों का नेता हो या अफसर या नागरिक सबने भारत और भारत की आत्मा, संस्कृति, सभ्यता, समाज, धर्म, व्यवस्था, शिक्षा, चिकित्सा और मानवीय सरोकारों, संवेदनाओं, लोकतंत्र को बुरी तरह से खोखला और कलुषित बना। डाला है। 

दुनिया में सभ्य समाजों के असंख्य उदाहरण हैं, जहां समय से परिवर्तन हुए हैं, लेकिन राष्ट्र की आत्मा, उसकी संस्कृति, विरासत, परंपराओं के साथ वैसा खेला कभी नहीं हुआ जैसा आजादी के बाद पैदा हुए भारतीयों के ही हाथों भारत में हुआ है। ब्रिटेन में प्रवासी भारतीय परिवार में जन्म लिए ऋषि सुनक प्रधानमंत्री बने और यह अनहोनी थी। लेकिन ऋषि सुनक ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे ब्रिटेन की आत्मा, गरिमा, स्वभाव, अलिखित कायदों, संस्कारों, मिजाज को ठेस पहुंचे। लोग कुंद बनें। झूठ में जीने लगें। पश्चिमी सभ्यता में डोनाल्‍ड ट्रंप के एक अपवाद को छोड़ ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जहां दस-बीस सालों में ही पीढ़ीगत परिवर्तन से अहंकार, भक्ति, जंगलीपन का आदिम, कबीलाई रास्ता बना हो। 

मेरा मानना है कि आजादी बाद पैदा हुए लालू यादव, नीतीश कुमार से लेकर नरेंद्र मोदी की जातिवादी राजनीति इक्कीसवीं सदी में कबीलाई समाज का पुनर्निर्माण है तो गरीबों में रेवड़ियां बांट कर लोगों को बंधुआ और मूर्ख बना कर उनकी राजनीतिक चेतना को आश्रित बनाना है। इससे फिर क्रोनी पूंजीवाद को लूटने का अवसर देना है तो शासन तथा व्यवस्था को बिना जवाबदेही के मनमाने राज का लाइसेंस भी देना है। 

भारत में ऐसा गुलामी काल में भी नहीं था। अंग्रेज गुलाम प्रजा के प्रति भले जवाबदेह नहीं थे लेकिन भारत में राज करने वाला वायसराय हो या जिले का अंग्रेज कलेक्टर वह अपनी महारानी, अपनी संसद, अपने कर्तव्यों की पालना के प्रति स्वंयस्फूर्त जवाबदेह होता था। और उसी विरासत, शिक्षा, परंपरा, संस्कारों और मूल्यों में स्वतंत्रता से पहले पैदा हुए भारत के नेता, अफसर, उद्यमी, शिक्षक, चिकित्सक, जज, व्यापारी आदि भी अपने-अपने क्षेत्र में जिम्मेवारी का वैसे ही निर्वहन करते थे जैसे परिवार के मुखिया के नाते संयुक्त परिवारों में बूढ़े-बुजुर्ग की कभी भूमिका हुआ करती थी। 

समय बदलता है और परिवर्तन अनिवार्य है लेकिन यह भी सच्चाई है कि प्राचीनतम सभ्यता की विरासत में गुलामी और दीनता के तमाम अनुभवों के बावजूद हम सनातनी भारतीय पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ बुनियादी आस्थाओं और नैतिक मूल्यों का संस्कारगत जीवन हमेशा जीते आए हैं। मध्यकाल के बहुत खराब समय में भी विदेशी यात्रियों ने भारत यात्रा के अपने अनुभवों में लिखा है कि यहां के लोग सत्यवादी हैं। जुबान के पक्के होते हैं। ईमानदारी की तासीर में ही व्यापारियों की हुंडियां देश-विदेश सभी तरफ मान्य होती हैं। न राजा अहंकारी होता था और न प्रजा मुफ्तखोर। बिना सीमाओं के भी भारत के लोग अपनी जिम्मेवारियों, अपनी व्यवस्थाओं के खोल में जीवन जीते हुए थे। जहां तक मुझे ध्यान है कि भारत के ज्ञात इतिहास में एक भी अहंकारी, जातिवादी, फूट डालो-राज करो या प्रजा में झूठ बनवा कर उसे बहकाने वाले हिंदू राजा का विवरण नहीं है। राजा क्रूर, विलासी, सामंतवादी भले हुए हों लेकिन छल-कपट, मर्यादाविहीन राजनीति वाले नहीं हुए। राजाओं की लड़ाइयां भी मर्यादाओं की पालना में होती थीं। 

मेरी मान्यता है कि क्रूर विदेशी हमलावरों को अलग करके यदि दिल्ली सल्तनत के विदेशी शासकों की शासन व्यवस्था पर गौर करें तो अकबर-जहांगीर का दरबार हो या अंग्रेजों का दरबार, उनमें यदि हिंदू मंत्री और प्रशासकों का जलवा हुआ है तो ऐसा स्वभाव, आचरण और संस्कारों से भी था।

और 21वीं सदी के पहले पच्चीस सालों में वह सब या तो लुप्त, खत्म है या हाशिए में है या फिर 140 करोड़ लोगों के चंद लाख परिवारों में ही बचा है। संभवतया इन्हीं परिवारों की संतानें हैं जो विदेश जा रही हैं और वहां अपनी प्रतिभा, अपने आर्दशों में अपना समय, अपना मान, अपनी क्वालिटी ऑफ लाइफ बनाए हुए हैं।  

बहरहाल, इक्कीसवीं सदी के पच्चीस साला अनुभवों पर लौटें। राजनीति से बरसी आग में सब काला हुआ पड़ा है। बावजूद इसके उसी पर सभी आश्रित हैं। व्यवस्था, समाज, धर्म, जाति, सशक्तिकरण, आर्थिकी, संस्कृति, सुरक्षा, भाषा, खानपान, पर्यावरण आदि सब पर राजनीति की काली छाया। मतलब समय और देश दोनों की दुर्दशाओं, मनहूसियों की धूरी हो गई है अकेली राजनीति। और प्रधानमंत्री का पद उसका केंद्र बिंदु। हर स्तर पर सत्ता का ऐसा केंद्रीकरण, जिसमें सब कुछ व्यक्ति विशेष के ख्याली विश्वासों में चलता हुआ है। आशा और निराशा सबके केंद्र में प्रधानमंत्री। 140 करोड़ लोगों का पूरा भारत चंद अहंकारी सर्वज्ञों, चंद बुद्धिहीन कथित हार्डवर्करों, चंद कथित चाणक्यों, चंद खरबपतियों, चंद अफसरों, चंद दलालों, चंद भोंपूओं से संचालित है। सामूहिकता, सामूहिक आत्मविश्वास की जगह एक व्यक्ति और एक व्यक्ति का इलहाम देश की नियति है।

ऐसा कैसे हुआ? इस आइडिया में हुआ कि अब हम हैं राष्ट्र के अधिपति। अब अपने आइडिया, अपने हिसाब, अपनी मेहनत से भारत को चलाना और बनाना है। पहले सपनों, आकांक्षाओं, उम्मीदों, सामूहिक आत्मविश्वास का जो राजपथ था, राष्ट्र-निर्माण के जो फंदे थे वे हमारे मन के नहीं थे, नकली और आयातित थे और वह एकता और सुरक्षा का छद्म था। वे नाकारा-निकम्मे नेता थे। लुंजपुंज राजनीति थी। अब छप्पन इंची छाती है। विश्वगुरूता है।  

इसी अहंकार में मुख्यधारा की अखिल भारतीय राजनीति को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह आवाज और धार दी है कि लोगों में, विशेषकर हठधर्मी हिंदुओं में भक्ति का सैलाब है। एक तरफ हिंदू-मुस्लिम और सुरक्षा की चिंता का अखिल भारतीय नैरेटिव तो दूसरी तरफ नेतृत्व मानों ईश्वरीय अवतार। लोगों के दिल-दिमाग को लुभाने वाले वे सब मनोवैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाए गए है, जिनसे भावनात्मक तौर पर नागरिकों में पहचान और विभाजनकारी विमर्श की राजनीति गहरे पैठती जाए।  

जाहिर है सन् 2000 तक लोगों में लोकतंत्र, भागीदारी, पक्ष-विपक्ष, अधिकारों के लिए आंदोलनों की जो बुद्धि, अनुभव और संस्कार पुख्ता हुए थे तथा भाषा, क्षेत्रवाद, अस्मिता आदि के तमाम उत्पातों के बावजूद जो राष्ट्रीय एकता और चेतना बनी थी उस सबका इस एकांगी आइडिया में हरण हुआ है कि हमारा उद्धार मोदी शरणम् गच्छामी में है।  

परिणाम सामने है। जिधर भी देखें वह आग है कि पीले फूल काले हुए पड़े हैं।

क्या आप खबरदार हैं इन बातों के कि इन दिनों गर्मी में लोग लावारिस मर रहे हैं। पीने के पानी के लाले हैं। बिजली महंगी, यात्रा महंगी और ऊपर से भेड़-बकरियों की तरह रेलों में भरे लोग तो वही नौजवान बेचारे दाखिले की परीक्षाओं के धोखों में सिसकते हुए। क्या पता है मौसम क्यों कर इतना बेरहम है? हमने जलवायु परिवर्तन को ले कर गैस, धुएं और ईंधन पर क्या वायदे किए और हुआ क्या, यह कोई नहीं जानता। गर्मी में आकाश से आग बरसने का रूटिन हो रहा है तो सर्दियां हर साल कंपाकंपा डालती हैं वही सांस लेना भी जोखिम भरा। लेकिन शासक और प्रजा मगन है इस विमर्श में कि प्रधानमंत्री इटली हो आए। क्या आपने देखा मोदी और मेलोनी का वीडियो?

इसलिए नोट रखें इन 25 वर्षों में खींची गई रेखा ही अगले 25, अगले 50 वर्षों के नौ दिन चले अढ़ाई कोस ही नहीं, बल्कि कबीलाई जीवन की ओर अनचाहे, अनजाने कौम, नस्ल को लौटने वाली भी होगी!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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