अपने सिन्हा साहब ने दिल्ली लौट पुश्तैनी प्रदेश के हाल बताए। लखनऊ के महानगर इलाके में उनके भाई-बंदों का घर है। वही रूके तो सामने स्कूल के लाउडस्पीकर से लगातार शोर से परेशान हुए। यह स्कूल उनके देखते-देखते लड़के-लड़कियों का इंटर स्कूल हुआ। उसमें मंदिर बना, भगवा छाया। लेकिन पहले कभी लाउडस्पीकर से शोर नहीं था। गणपति बप्पा मोरिया की वंदना से लेकर फिल्मी गानों (देशभक्ति, देवी-देवताओं) का सुबह आठ बजे से ही शोर। भाई से पूछा क्या हमेशा रहता है? हां, ऐसे ही है। एक सुबह शोर हुआ तो कौतुकवश सिन्हाजी छत पर जा कर स्कूल के प्रांगण का नजारा देखने लगे। चार-पांच साल की उम्र के बच्चों से शुरू छात्रों की कतारें। वंदना, प्रार्थना। आखिर में लाउडस्पीकर के आगे खड़ी महिला अध्यापक का बच्चों से आह्वान था- ‘बंटोंगे’ जवाब में बच्चों की और से कहा गया ‘कटोगे’!
सिन्हाजी का अगला ऑर्ब्जवेशन अपने खेत के रास्ते में लखनऊ की कुर्सी रोड पर स्थित इंटीग्रेटेड यूनिवर्सिटी (मुस्लिम प्रबंधन) के विशाल कैंपस और उसके आगे अमर सिंह द्वारा स्थापित इंजीनियरिंग संस्थान का था। इंजीनियरिंग संस्थान पहले यों ही था। लेकिन इस बार वहां रौनक भीड़ थी। मालूम हुआ उसे मुस्लिम प्रबंधन ने संभाल लिया है। यों भी तकनीकी शिक्षा में इंटीग्रेटेड यूनिवर्सिटी की पहले से साख है। होस्टल आदि की सुविधाएं हैं। इससे निकलते मुसलमान नौजवानों में सिविल परीक्षाओं की धुन है तो तकनीकी डिग्री के बाद खाड़ी के देशों में नौकरी लपकने की होड़ भी रहती है!
ऐसा मेरा भी ऑब्जर्वेशन है। श्रीनगर विश्वविद्यालय और कश्मीर घाटी के मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज या एएमयू जैसे कैंपसों से तैयार पढ़े-लिखे मुसलमान नौजवान जिस शिद्दत से आईएएस, इंजीनियर, डॉक्टर बन हर तरफ अपनी उपस्थिति (दिल्ली के प्राइवेट आला अस्पतालों में बहुत डॉक्टर) बना रहे हैं वह प्रमाण है कि समर्थ मुस्लिम अभिभावक और बच्चे शिक्षा के प्रति गंभीर हैं। वैसी ही रोजर्मरा के कामों (बढ़ई, नल-बिजली की रिपेयरिंग, चिनाई, पेंट-पुताई, ड्राइवर, दर्जी, लेबर, खेती-बाड़ी से लेकर फल-सब्जी के थोक और खुदरा बिक्री के ठेले-रेहड़ी) में मुस्लिम आबादी हर संभव काम में मोनोपॉली बनाते हुए है।
जबकि हम हिंदू क्या खामोख्याली बनाए हुए हैं? मुसलमान बस बच्चे पैदा करते हैं, उन्हें मदरसों में पढ़ा जेहादी बना रहे हैं। इसलिए उनकी बढ़ती आबादी के आगे तकाजा है जो हिंदू लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें!
इससे बड़ा मूर्खतापूर्ण तर्क नहीं हो सकता!
इसलिए क्योंकि हिंदू आदिकाल से आज तक संख्या में मुसलमानों से कई गुना अधिक रहे हैं। पूरे मध्यकाल में खैबर दर्रे से पांच सौ या हजार घुड़सवारों या पांच हजार की पैदल सेना के साथ इस्लामी हमलावर दिल्ली की और कूच करता था और हिंदू राजा की असंख्य गुना ज्यादा बड़ी सेना को चुटकियों में हरा देता था। तभी तो दिल्ली का तख्त लगातार विदेशी शासकों की जागीर रहा।
हिंदू आबादी तब तुर्क, अरब, इराक, ईरान याकि पूरे इस्लामी जगत की कुल आबादी से भी कई गुना अधिक थी। तब से आज तक हम लगातार कई गुना अधिक थे और हैं। बावजूद इसके नस्ल में ड़र पैठाया जा रहा है कि समझो, बच्चे पैदा करो और जो है वे बोलें- बंटोंगे…… कटोगे!
यह बुद्धिहीनता, गंवारपने का वह पाताली पैंदा है जो दिमाग के बिना इस्तेमाल के तीन-चार वर्ष की बाल अवस्था में नस्ल की नई पौध में बंटोंगे तो कटोगे का बीज डाला जा रहा है या कक्षा में यदि मुस्लिम छात्र है तो हिंदू बच्चा नाम सुनते ही सोचे- ‘पाकिस्तानी’! या मुसलमान अध्यापक, हेडमास्टर है तो ‘साला क… है’!
इसलिए, क्या बच्चे पैदा करके हमें देश में गृहयुद्ध, समाज में समाज युद्ध, परिवार में घर युद्ध बनाने की फौज बनानी है? मैंने भीलवाड़ा में बचपन की छीपा बिल्डिंग स्कूल की प्राथमिक शिक्षा में पचतंत्र की लकड़ी बनाम लकड़ी के बंडल की एक कहानी (यदि झगड़ोगे, अलग-अलग रहोगे तो नुकसान में रहोगे) पढ़ी थी। विद्या ददाती विनयम् जैसे श्लोक का रट्टा मारा था। देशभक्ति और विद्या की देवी सरस्वती, राष्ट्रगान की तब प्रार्थना होती थी। न माइक और न लाउडस्पीकर होता था और न क्लास में हिंदू या मुसलमान या नाम का फर्क या जाति के फर्क का भान था। हम आपस में लड़ते-झगड़ते थे लेकिन स्कूल, कॉलेज में फलां ‘पाकिस्तानी’ या फलां अध्यापक के लिए मन ही मन भेदभाव का तनिक भी ज्ञान, भाव नहीं था।
और अब चार-पांच साल के बाल दिमाग में कैसे शब्द रौंप रहे है? ‘बंटोंगे’….‘कटोगे’, भारतमाता, हिंदू, मुसलमान, पाकिस्तानी, मंदिर आदि शब्द!
सोचें, दुनिया में कोई दूसरी कौम इतनी मूर्ख और जाहिल है, जैसे हम इन दिनों अपने आपको प्रमाणित करते हुए हैं?
आबादी में आज कोई सवा सौ करोड़ हिंदू होंगे। अधिकांश भीड़ स्वतंत्र भारत में 1960 के बाद की शिक्षा से निर्मित है। इसमें भी नौजवान आबादी सन् 2001 के बाद की शिक्षा से तैयार है। उससे बना हिंदू यूथ आज क्या करता हुआ है? वह पढ़ा-लिखा अशिक्षित है! यों हिंदू आबादी में शिक्षा परिवार की आर्थिक हैसियत अनुसार शैक्षिक ऊंच-नीच, गंवारपने के अलग-अलग लेवल बनाए हुए है। हिंदू बच्चा यदि पैसे वाले परिवार में हुआ तो वह प्राइवेट, कॉन्वेंट में दाखिले के साथ आईआईटी, आईआईएम के रोडमैप में भाषा, गणित, विज्ञान में दिमाग को पकाते हुए विदेश को घर बनाएगा और उसकी देश, इतिहास, सभ्यता-संस्कृति को लेकर उतनी ही भोथरी नासमझी होगी, जैसे उसके नीचे के बाकी शैक्षिक वर्ग का वाह्ट्सअप झूठ होता है। फिर मध्यवर्ग के बच्चों की वह पैदाइश है जो अपने अभिभावकों के सपनों, मुश्किल व्यवस्थाओं में कोचिंग के रट्टों से उन डिग्रियों को पाता है, जिससे सेवा क्षेत्र, आईटी, बैक ऑफिस, कोडिंग की कुलीगिरी आदि की तनख्वाह के पैकेज पाता है। वह भी देशकाल की समझ में भीड़ का एक हिस्सा। अगला वर्ग जाति सर्टिफिकेट और सशक्तिकरण से पैदा बच्चों का है। इनके पैरेंट्स इनमें सरकारी नौकरी की भूख बनाते हैं और बिना परिश्रम की पढ़ाई से आरक्षित नौकरी की दौड़ में डिग्री हासिल करते हैं। नौकरी मिल गई तो जीवन धन्य और नहीं मिली तो अंसतोषी जीवन। जाति के सर्टिफिकेट ने कारीगरी व हुनर के सभी कामों से हिंदू पारंपरिक कौशल को लगभग खत्म कर डाला है। ओबीसी जातियों के नौजवानों में नौकरी-चाकरी की अंधी होड़ है और पारिवारिक कौशल से नफरत सी है। तभी बढ़ई का काम भी मुसलमान करते हुए हैं तो माली का काम भी मुसलमान। हिंदू शिक्षा की चौथी कैटेगरी वह है, जिसमें बिना परीक्षा के सरकारी स्कूलों में एक के बाद एक क्लास चढ़ते हुए जैसे-तैसे दसवीं-बारहवीं का सर्टिफिकेट पा कर बेगारी करनी है। अग्निवीर या चपरासी आदि की नौकरियों के लिए भी ट्रेनिंग और जुगाड़ की कशमकश में जवानी गुजरानी है। अंत में डिलवरी, ड्राईवरी जैसे काम।
तो हम हिंदू मौजूदा बच्चों का विकास, निर्माण कैसा कर रहे है? कुल सत्व-तत्व जातीय छीनाझपटी, आरक्षण आंदोलन, भूख, बेगारी और समाज के भीतर झगड़े तो वही परिवार के भीतर भी कई तरह के गृहयुद्ध!
हाल में हल्ला था कि दहेज प्रथा कानून के हथियार से घायल एक आईटी पेशेवर ने आत्महत्या की। पर क्या यह नई बात है? भारत का जबसे संविधान बना है हिंदुओं की अंतर्कलह, सयुंक्त परिवारों के बिखराव, परिवारों में टूटन और हत्या, आत्महत्या, बलात्कार के वे आंकड़े हैं, जिनके मुकाबले में अंग्रेजों के शासन के आंकड़े छटांग भी नहीं थे।
स्वतंत्र भारत ने, पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी की सरकारों ने हिंदू समाज में गृहयुद्ध और परिवार युद्ध बनाने के उन तामा कानूनों का निर्माण किया है, जिससे समाज, परिवार, घर टूटे। इसी शनिवार संसद में राहुल गांधी ने संविधान और मनुस्मृति पर हवाबाजी की! पर कोई माई का लाल इस सत्य को नकार सकता है कि पिछले 75 वर्षों में भारत के संविधान से कौम, धर्म, समाज, पारिवारिक जीवन चारों में क्या बरबादी नहीं है? अंग्रेज, मुगल और मनुस्मृति के किसी भी काल से तुलना कर डालें!
स्वतंत्र भारत में वह कुछ भी नहीं हुआ, जिसके कभी आर्दश थे। सभी तरह का सशक्तिकरण विकृतियां लिए हुए है। न जातियों में समरसता बनी। न समाज प्रबुद्ध, समझदार हुआ। न कौम के आचरण, व्यवहार में वैज्ञानिकता, आधुनिकता, सांस्कृतिकता है। न परिवारों में शांति है। अधिकार और कानून के नाम पर झगड़ों का ऐसा जंजाल बना दिया है कि न पुरूष व महिला में सहज संबंध है और न पति-पत्नी में परस्पर भरोसा होता है। परिवारों, रिश्तों में घर-घर वह गृहयुद्ध है जो न मां-बाप संतान के संग रहना चाहते है और न संतान अभिभावकों के साथ। ये रिश्ते कोर्ट-कचहरी की ठोकरें खाते हुए हैं। हिंदू रिश्तों में हर स्तर पर स्वार्थ, ईर्ष्या, लालच, भूख, तेरे-मेरे, कोर्ट-कचहरी के चक्कर हैं, हिपोक्रेसी है!
ऐसा संकट मुसलमानों में नहीं है। क्या कभी सुना कि पत्नी से तंग आ कर मुस्लिम नौजवान ने आत्महत्या की या मुसलमान लड़के-लड़कियों में यौन शौषण, बलात्कार के लिए मुकद्दमेबाजी चल रही है। या दलित, पसमांदा मुसलमान, ओबीसी मुसलमान और शेख, सैयद मुसलमानों की ऊंच-नीच के सार्वजनिक झगड़ों से परिवारों का जीना हराम हो रहा है! आज मुसलमान की हर श्रेणी, हर वर्ग संपन्न होते हुए है। गरीब मुसलमान सरकारी राशन, खैरात का पूरा फायदा उठा रहा है। वह हर तरह की मजदूरी, कारीगरी में पैसा कमा रहा है। मध्यम और उच्च वर्ग के बच्चे पढ़-लिख हर नौकरी प्राप्त करते हुए हैं। एक पते की बात है। पंक्चर लगाने के काम में मुसलमान बड़ी संख्या में है। पैसे वाले मुसलमान पंचर मशीन या और औजार खरीद कर यूथ को बिना सूद के बांटने का पुण्य करते हैं। गरीब मुसलमान उसकी कमाई में धीरे-धीरे किश्त चुका देता है। मतलब फल-सब्जी के ठेले से लेकर औजार मुहैया कराने के लोग समुदाय में हैं। दूसरी बात, पढ़ा-लिखा मुसलमान व्यवस्था में पक्षपात के बावजूद सरकारी नौकरी के लिए बेइंतहां मेहनत करता है। और यदि उसका एक भी अफसर कुर्सी पर बैठा तो वह पूरे समुदाय के लिए काम करेगा। इसलिए एक मुसलमान हजार मुसलमान के बराबर। जबकि हिंदू दलित यदि अफसर बना तो वह जाति अनुसार व्यवहार करेगा। गैर जाट बना तो जाट विरोधी और जाट बना तो ब्राह्मण विरोधी!
इसलिए मुस्लिम समाज में बच्चे जिंदगी की जरूरत में मेहनत से बनते है। वे समाज, परिवार, घर की मजबूती की हिम्मत और हौसला लिए होते है। वे कम संख्या में होंगे तब भी जब जरूरत होगी तब धर्म के मिशन में डायरेक्ट एक्सन से चूकेंगे नहीं। जबकि हिंदू फिजूल के मुगालतों, भयाकुलता और झूठ में बच्चों को वैसे ही भटकाएंगे, वैसे ही तैयार करेंगे जैसे गुलामी के इतिहास में करते रहे है तथा इक्कीसवीं सदी में भी शिक्षा, कौशल, बुद्धि, सोच, जुमलों, तथा नैरेटिव सभी की भ्रष्टताओं से तैयार कर रहे है।