Wednesday

26-03-2025 Vol 19

हम हिंदुओं की भूख!

संभवतया पूरी दुनिया में हर नस्ल, हर धर्म के मुकाबले में यह भूख सर्वाधिक अंधी है! यों भूख मनुष्य को दौड़ाती है, जिंदा रखती है, दिल-दिमाग में ऊर्जा बनाती है लेकिन मनुष्य को भेड़िया बनाए, यह भारत का विशेष ट्रेडमार्क है! इसी से हिंदुओं का गुलामी का बेजोड़ इतिहास है! आखिर मुसलमान, अंग्रेज और विदेशी आक्रांताओं ने हिंदुओं पर राज क्यों किया?  इसलिए क्योंकि भेड़ और भेड़ियों के जंगल का राजा हमेशा वह शेर होता है, जो न भेड़ जैसा निर्बल होता है और न भेड़ियों जैसा भूखा! शेर की शारीरिक भूख पूरी हुई नहीं कि फिर वह संतुष्ट होता है। भेड़ियों की तरह वह लोभ और लालसा में चौबीसों घंटे मुर्गियां, शिकार नहीं तलाशता है। जबकि भारत में हम क्या देखते है? हर तरफ भूख ही भूख!

इस सप्ताह सुनने को मिला कि दिल्ली हाई कोर्ट के जज के घर में इतने नोट पाए गए कि देश की राजधानी, न्यायपालिका और कार्यपालिका, मीडिया में सभी तरफ यह सोच सनसनी है कि ऐसा अकूत भंडार!

पर क्या यह कोई नई बात है? क्या नहीं जानते ओहदे का मतलब ही भूख है!

अनुमान लगाएं भारत में कितनी अदालतें हैं तथा कितने वकील और जज हैं? अनुमान लगाएं भारत में कितने थाने और कैसे-कैसे उनके शिकार क्षेत्र हैं? अनुमान लगाएं भारत में पटवारी से प्रधानमंत्री तक के कितने पद हैं और ये सब 140 करोड़ भीड़ में प्रति क्षण कितनी भेड़, बकरियों का, कैसा कितना शिकार करते होंगे? इस सप्ताह मुझे नई जानकारी मिली! मेरी बस्ती में सोमवार को सब्जीवालों का मंडे बाजार लगता है। परिवारजन सालों से सब्जी लेने जाते हैं। परिचित सब्जी विक्रेता चेहरे हैं। इस दफा सब्जी खरीदते समय पीले वस्त्र धारे एक व्यक्ति आया तो सब्जी विक्रेता ने उसे देख हड़बड़ाते हुए, उसके आगे झुकते हुए दस रुपए का नोट थमाया। वह फिर आगे बढ़ एक एक कर रेहड़ियां कवर करता गया। बेटी ने पूछा यह कौन? उसने बताया ये पुजारीजी हैं! फिर उसने बताया अब एक नहीं, बल्कि चार जने पैसा लेने आते हैं। पुलिस का बंदा बाजार लगने की शुरुआत से चला आ रहा है। उसके अलावा अब दो बंदे एमसीडी के आते हैं। ये पुजारीजी भी आने लगे हैं। मुझे दस रुपया देने में शर्म आती है, अच्छा नहीं लगता! लेकिन डर है कि यदि इन्हें नाराज किया तो बुरा न हो जाए!

सोचें, सड़क पर सब्जी बेचने वाली गरीब भेड़ से पुलिस, प्रशासन और पुजारी द्वारा पचास, बीस, दस रुपए की वसूली किस बात का प्रमाण है? एक ओहदा है, जिसके ओहदेदार तनख्वाह व दक्षिणा पाते हैं मगर इनका उससे पेट नहीं भरता! इसलिए भेड़ों से वसूलना वे ओहदे का जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं!

ऐसा कायदा जानवरों के जंगल का भी नहीं है। जंगल का राजा शेर अपने पेट की शारीरिक भूख पूरा करने के बाद संतुष्ट हुआ होता है। वैसे ही सभ्य, विकसित मनुष्यों की कौमों, देशों के पटवारी से प्रधानमंत्री, मुंसिफ जज से सुप्रीम कोर्ट जज, बीट कांस्टेबल से स्काटलैंड यार्ड के चीफ पद के सभी इंसान अपने-अपने पद, वेतन के संतोष में जीते हैं। वे चौबीसों घंटे जीभ लपलपाए भेड़िए नहीं होते हैं! हां, यह कंफ्यूजन नहीं रखें कि डोनाल्ड ट्रंप या इलॉन मस्क का जो अभी उत्पात है वह भेड़ियावाद का प्रतीक है। डोनाल्ड ट्रंप और इलॉन मस्क ये अपने पुरूषार्थों, काबलियत से बने वे राजा हैं, जिनका अहंकार सचमुच अपने जंगल के गौरव का है। ये व्यवस्था बदल रहे हैं, वाशिंगटन की कुलीन यथास्थिति को बदल रहे हैं तो वह संविधान और कानून अनुसार प्राप्त अपने अधिकारों से है! डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी भूख से दुबारा राष्ट्रपति पद पाया है तो उसका मान उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बाइडन, कमला हैरिस, डेमोक्रेटिक पार्टी सभी ने रखा है!

विषयांतर हो रहा है। सवाल है हिंदू क्यों नहीं संतुष्ट होता? यह कैसा विकार है जो हैसियत और पैसा जितना बढ़ता जाएगा उतना ही दिमाग में लोमड़ीपना बनेगा, भेड़ियापन घुसेगा? एक प्रधानमंत्री, एक चीफ जस्टिस, एक जज, एक आईएएस, एक आईपीएस, एक कोतवाल, पटवारी या खरबपति, महामंडलेश्वर, चांसलर या एक्सवाईजेड किसी भी रसूखदार, ओहदेदार दिमाग में आखिर वह कौन सा कीड़ा काम करता है जो उसमें भूख के एक के बाद एक भभके बनवाता है? भूख कभी संतुष्ट ही नहीं होती!

मेरा मानना है कि भूख का वायरस कलियुगी भारत का वह श्राप है, जिससे भेड़, भेड़िए, लोमड़ियों का जीवन  नियति है? इसके जो लेवल व वृत्ति हैं उसी अनुपात में भूख है और शिकार होते हैं।

सोचें, एक जिंदगी को कितने करोड़ रुपए की आवश्यकता है? किसी का कितना वेतन होना चाहिए, जो वह शेर की तरह गरिमा की जिंदगी भोगे? सोचें, भारत के अंबानी, एयरटेल के सुनील मित्तल, अडानी, बिरला जैसे खरबपतियों में क्यों शेर जैसी जिंदादिली नहीं होनी चाहिए? पर यदि होती तो जियो रिलायंस और एयरटेल क्या इलॉन मस्क की स्टारलिंक से घबरा कर उसका वेंडर, एजेंट बनते?

समसामयिक आजाद भारत के अनुभवों में ऐसी अनहोनियों का एक कारण मुझे यह समझ आता है कि अबांनी, अंडानी, मित्तल आदि खरबपति क्या काबिलियत से बने हैं, जो वे शेर की जिंदगी जीयें? मतलब काबलियत की यह हिम्मत हों कि उन्हें किसी का डर नहीं है। वे अपने क्षेत्र, अपने हुनर के शेर हैं? कुछ बिरले अपवादों को छोड़ें तो भारत का हर अमीर क्रोनी पूंजीवाद, सरकारी कृपाओं, रिश्वत और भ्रष्टाचार से बना है। इनकी नींद उड़ जाएगी यदि सरकार की कृपा नहीं रहे। मैंने प्रधानमंत्री वीपी सिंह, विनोद पांडे, भूरेलाल के अफसरी तंत्र के खौफ में धीरूभाई अंबानी को लकवा होते देखा है। कोई न माने इस बात को लेकिन हकीकत है कि नेहरू और शास्त्री (मोरारजी देसाई का भी अपवाद) के बाद भारत का हर प्रधानमंत्री असुरक्षा, डर, साजिशों की चिंता में शासन करता रहा है।

सो, आजाद भारत में कसौटी काबिलियत नहीं है, निर्भयता-निडरता-संतोष नहीं है, शेर जैसा मिजाज नहीं है, बल्कि अतीत और इतिहास के अनुभवों में डर, असुरक्षा, भक्ति और समर्पण का वह रसायन खून में निरंतर दौड़ता हुआ है, जिससे जंगल है और उसमें शेर और परमहंस जैसे जीव है ही नहीं!

सोचें, उस एक जज की जिंदगी पर, जिसके परिवार में पहले भी जज थे, जिसकी बतौर वकील कमाई भी अच्छी बतलाई जाती है उसकी भूख कितनी होनी चाहिए? उसे जिंदगी भर के लिए कितने करोड़ रुपए चाहिए?  ये सवाल पूरी लुटियन दिल्ली, देश के कुलीन वर्ग पर लागू है। ध्यान रहे जिला स्तर के जज, सचिव, अतिरिक्त सचिव, आईएएस, आईपीएस अफसरों को डेढ़ से तीन लाख रुपया प्रतिमाह वेतन मिलता है। इतना वेतन 145 करोड़ लोगों की आबादी में मुश्किल से पचास लाख लोगों का होगा। आयकर विभाग का आंकड़ा है कि पचास लाख से ऊपर की आय के 2023-24 के रिटर्न की संख्या 9.39 लाख थी। इसलिए अनुमान लगा सकते हैं कि 145 करोड़ लोगों की आबादी में भेड़, बकरियों याकि कैटल क्लास को प्रतिमाह कितना पैसा मिलता है जबकि बड़े ओहदे के बड़े लोगों को इनके अनुपात में कितना ज्यादा वेतन प्राप्त है!

मगर भारत में वेतन से अधिक ओहदे की ताकत है तो वेतन से कोई संतुष्ट नहीं है। फिर भेड़ियों ने खा  खा कर अपने मोटापे के प्रर्दशन, दिखावों, दो नंबर की खरीद को अधिक से अधिकतम बना इतना महंगा बना डाला है कि महंगा बनाए रखने, उससे भी भूख सुरसा की तरह बढ़ते जाने का लोमड़ियों का दुष्चक्र बनाया जाना है।

ठीक विपरीत भारत की कैटल क्लास इस संतोष में जिंदगी जीती है कि भाग्य में यही बदा है। उसमें यदि कोई ओहदा पा गया तो वह भेड़ तुरंत भेड़िए, लोमड़ी में कनवर्ट हुए होगी। तब वह दिन रात सोचता है कि जिन कारणों से उसकी भेड़ से भेड़िये की पदोन्नति है उसका खर्चा निकालना है, कीमत वसूलनी है। अच्छी पोस्टिंग का जुगाड़ बनाए रखना है। पदोन्नति के लिए पैसा इकठ्ठा करना है। अपने लड़के को भी जज बनाना है। नेता बनाना है, उसका काऱखाना खुलवाना है। विदेश भेजना है। प्रोफेसर बनवाना है। और इन सभी इच्छाओं का मंत्र फिर पैसा, चापलूसी, ईमान-धर्म को गिरवी रखना!

एक तर्क है कि यह सब पूंजीवाद, बाजार, भौतिकवाद के कारण है!  फालतू बात है। इसलिए क्योंकि हर वाद में भूख के साथ काबिलियत, परिश्रम, शोषण और संतोष जैसे तत्व भी हैं। अभी एक वैश्विक सूची आई है। दुनिया के मनुष्यों में सर्वाधिक खुश लोगों की संख्या के नाते पिछले साल की तरह पूंजीवादी नार्वे, स्वीडन याकि स्कैंडिनेवियाई देश टॉप पर थे। इस लिस्ट में भारत बॉटम में अफगानिस्तान के कुछ ही ऊपर लेकिन पाकिस्तान से नीचे था!  मेरी मान्यता है मनुष्य के हालातों को जांचने की कसौटी पूंजीवाद, समाजवाद आदि की नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह होनी चाहिए कि कौन सा समाज कैटल समाज है और उसके जीवों में शेर, परमहंस जैसी प्रवृत्तियों के लोग हैं या वह भेड़ियों, लोमड़ियों, लंगूरों, लकड़बग्घों, कौवों की लूटखसोट, कांव-कांव में सांस लेता हुआ समाज है! अपने आप मनुष्यों का वह भेद जाहिर होगा कि कौन सभ्य व खुश है और कौन जंगली व लूटखसोट के मारे!

दिल्ली के जज का वाकया एक व्यक्ति का नहीं है। पूरे समाज का है। मेरा मानना है इसकी परतों में लोमड़ियां मिलेंगी तो लंगूरों, लकड़बग्घों और भेड़ियों के समूह का बैकअप होगा। इसलिए क्योंकि भारत की हर संस्था, हर पालिका, कुलीनों के हर वर्ग के चेहरे गिरोहों में तब्दील हैं। सोचें, एक सब्जीवाले से यदि चार अलग-अलग दर्जे के चेहरे पैसा वसूल रहे हैं तो न्याय, शासन, राजनीति, मीडिया, व्यापार की दुकान से वसूली में कितने चेहरों की, कितनी तरह की भूख टूट पड़ रही होगी!

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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