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08-04-2025 Vol 19

मकड़ी अपने ही बनाए जाल में मरती है!

delhi assembly election: अरविंद केजरीवाल उस अन्ना भूचाल के जनदेवता थे, जिसकी जंतर मंतर पर भीड़ को देख अमित शाह ने नरेंद्र मोदी को फोन कर बताया था कि अब आप दिल्ली चलो का मिशन बनाएं।

मेरा संयोग है मैंने उससे ठीक पहले ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम में आरटीआई एक्टिविस्ट के नाते बुला अरविंद केजरीवाल से बात कर उन्हें समझा।

जब उन्होने पार्टी बनाई और उनमें अखिल भारतीय नेता बनने का गुमान बना तो उनके यमुना पार के दफ्तर जा कर इंटरव्यू किया था (यूट्यूब पर सब होंगे)।(delhi assembly election)

अन्ना आंदोलन के उफान की पैदाइश में, मैं एक छोर पर नरेंद्र मोदी-अमित शाह की दो टूक संभावना मानता था वही अरविंद केजरीवाल इसलिए संभावना थे क्योंकि तेजी से बढ़ी नौजवान आबादी के मुहावरों, मिजाज, जज्बे में केजरीवाल का मफलर लपेटे चेहरा सचमुच हिट था।

भ्रष्टाचार के खिलाफ भभके में केजरीवाल का चेहरा, चाल, चरित्र वह सब लिए हुए था, जिससे पूरे देश में झाड़ू से उनकी पहचान बनी। आधुनिक भारत की गजब दास्तां है, जो भारत के लोगों ने तीन बनियों को सिर आंखों पर बैठाया।

मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा मान उनसे रामराज्य की उम्मीद की, राममनोहर लोहिया से असली समाजवाद के ख्याल बनाए वही अरविंद केजरीवाल की टोपी और झाड़ू से करप्शन मुक्त राजनीति, विकास की संभावना मानी। लेकिन तीनों से तनिक भी वह नहीं बना, जिसकी उम्मीदों के वे लोकदेवता थे।

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केजरीवाल का मामला 21वीं सदी का(delhi assembly election)

केजरीवाल का मामला इक्कीसवीं सदी का है। यह उस नौजवान पीढ़ी का समय है, जो सचमुच ‘नए’ की चाहना में थी और है।

तभी अरविंद केजरीवाल नए जुमलों, नए प्रतीकों से वैसा ही अपना नैरेटिव बनाने में कामयाब थे, जैसे ‘भारत माता’ और हिंदू नैरेटिव में नरेंद्र मोदी और संघ परिवार कामयाब हुए।

तभी उस उफान में केजरीवाल ने सीधे अपने को नरेंद्र मोदी के आगे रखा। केजरीवाल में हूक बनी कि हमने माहौल बनाया तो मोदी कैसे फायदा उठा रहे हैं!(delhi assembly election)

लोग उनके और आप के दीवाने हैं न की मोदी के! इसलिए मोदी के आगे 2014 में वाराणसी में केजरीवाल तो राहुल गांधी के आगे कुमार विश्वास ने चुनाव लड़ा!

तब केजरीवाल और उनकी टोली का हर लंगूर अखिल भारतीय पैमाने पर उछलता-कूदता था। उसी समय केजरीवाल एंड पार्टी में अहंकार की वे ग्रंथियां बनीं, जिसमें सर्वप्रथम केजरीवाल ने ही अपने को भगवान समझ सियासी जाल बनाना शुरू किया।

व्यक्ति केंद्रित राजनीति

हालांकि उनका आंदोलन से उभरा अवसर था पर उन्होंने व्यक्ति केंद्रित राजनीति बनाई। अरविंद केजरीवाल अहंकार में थे कि मेरे से सृष्टि है तो अवसर मेरा है, मुझे भगवानजी ने सबका भाई, बेटा और अभिभावक बनाया है।

जाहिर है अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव आदि का अर्थ नहीं रहा। सो, इनकी बेगारी से मुक्ति पा केजरीवाल का मकड़जाल बनना शुरू हुआ।

सोचा था दिल्ली देश की राजधानी है, प्रतिनिधि महानगर है इसलिए वे वह कर दिखाएंगे, जिससे वे अखिल भारतीय जननेता होंगे।(delhi assembly election)

ख्याल रहा होगा कि नरेंद्र मोदी समय के साथ फेल होने हैं तो उन्हें विपक्ष में अपने चेहरे को ऊपर रखना है। इसके लिए जरूरी है कि वे कांग्रेस की जमीन भी खाते जाएं।

कोई न माने इस बात को लेकिन इक्कीसवीं सदी के भारत का यह त्रासद सत्य है कि इस सदी में, उभरते भारत में, भारत की आंकाक्षाओं में, भारत के अवसर में, नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरविंद केजरीवाल (अभी योगी आदित्यनाथ को इनके साथ न रखें) का जो नेतृत्व उभरा वह पूरी तरह, चौबीसों घंटे राजनीति में खपा हुआ रहा और है।

भारत राजनीति का मकड़जाल

मानों भारत राजनीति का मकड़जाल है, जिसमें अपने को सृष्टि का रचियता मान अपनी सुरक्षा, अपनी अभेद सत्ता का घर बनाना ही है।(delhi assembly election)

वह दिल्ली बनानी है, वह भारत बनाना है, जिससे उनका चक्रवर्ती सदा-सनातनी राज बना रहे। इसके लिए वोट, पैसे, तकनीक, जुमलेबाजी से यह भ्रमजाल रोजमर्रा के नैरेटिव का हिस्सा हो कि देखो दिल्ली स्वर्ग हो गई है।

भारत विकसित हो गया है। दिल्ली केजरीवाल का परिवार है। वह सबको सब देता है! सबका साथ, सबका विकास!

क्यों अरविंद केजरीवाल को पैसे की आवश्यकता हुई, क्यों आम आदमी के एक चेहरे को मुख्यमंत्री आवास की आवश्यकता हुई? क्यों प्रचार-प्रसार और विज्ञापनों की आवश्यकता हुई?

इसलिए क्योंकि कंपीटिशन नरेंद्र मोदी, भाजपा की चौबीसों घंटों की राजनीति से था। व्यक्तिवादी राजनीति, व्यक्तिवादी नेताई मकड़जाल की मकड़ी हमेशा इस वृत्ति, प्रवृत्ति में तानाबाना बुनती है कि उसी से ही अस्तित्व, जिंदा रहने की गारंटी है!

अरविंद केजरीवाल ने स्वकेंद्रित राजनीति में दिल्ली का शासन किया। वह किया, जिससे दिल्ली की सत्ता और राजनीति का उनका बापी पट्टा हो जाए।(delhi assembly election)

तभी प्रचार-प्रसार, साधनों, पैसे के लिए उन्हें वह सब करना था जो वे अपने मुख्य कंपीटिटर नरेंद्र मोदी को करता महसूस करते थे। उन जैसे ठाठ बाट दिखाने थे, सत्ता का गुरूर दिखाना था तो प्रचार और नैरेटिव पर कब्जा भी जरूरी था।

पार्टी, सांसदों-विधायकों सबकी अंध वफादारी चाहिए थी। सोशल मीडिया पर कब्जा चाहिए था।

विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस को लगातार औकात बतालते हुए अपने को उससे बड़ा, उसका विध्वंसक बताना था ताकि लोगों में परसेप्शन पैंठे कि नरेंद्र मोदी के आगे केजरीवाल ही दमदार है। वे विपक्ष में स्वीकार्य हैं, जबकि राहुल व कांग्रेस खत्म होती पार्टी हैं!

भारत में बुनियादी परिवर्तन क्यों नहीं(delhi assembly election)

मैं अरविंद केजरीवाल की मनोवृत्ति 2015 में समझ गया था। और बाद में एक बार इसी कॉलम में उनके काम की विवेचना में मेरा शीर्षक था, ‘नंग बड़ा भगवान से!’

लेकिन बावजूद इसके भारत की बुनियादी व्यक्तिवादी राजनीति में अरविंद केजरीवाल कोई पहले नहीं हैं, जो अपने हाथों अपने मकड़जाल के शिकार हैं।

सोचें, भारत में बुनियादी परिवर्तन क्यों नहीं होते हैं, क्रांति क्यों नहीं होती है, इसका जवाब 1947 के बाद कई मौकों पर मिला है।(delhi assembly election)

अन्ना का भूचाल यदि जेपी की कथित संपूर्ण क्रांति के भूचाल जैसी ही नियति में खत्म है तो भला क्यों? इसलिए क्योंकि इंदिरा गांधी को हराने वाली जनता पार्टी के नेता भी सत्ता पाते ही व्यक्तिवादी राजनीति (तब कुछ वैचारिक कारण भी थे) में अपने मकड़जाल बनाने लगे थे।

यह भारत की सत्ता और राजनीति को कोई श्राप है जो सत्ता पाते ही नेता अपनी सत्ता की चिंता में, स्वार्थ में अंधे हो कर मकड़ी बनते हैं।

वह राजनीति करते हैं, वह मकड़जाल बनाते हैं, जिसे बुनते-बुनते अपनी सद्गति पाते हैं। देश वैसे ही रामभरोसे, जुमलों पर नौकरशाहों के जरिए चलता रहता है, जैसे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का चला!

केजरीवाल का मकड़जाल इतनी जल्दी खत्म(delhi assembly election)

आज दिल्ली दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित (हालांकि केजरीवाल ही इसके लिए अकेले दोषी नहीं), गंदी राजधानी है। जैसे पूरे भारत में लोग पिछले दस वर्षों से सरकार की खैरात, राशन-रेवड़ियों पर जिंदा हैं वैसा दिल्ली में भी है।

दिल्ली झुग्गी-झोपड़, सीमेंट-क्रंक्रीट का एक बदसूरत और बेतरतीब शहर है। नौजवान आबादी बेगारी, बेरोजगारी और अस्थायी छोटे-छोटे कामों में खपी हुई है।(delhi assembly election)

इनके आगे कोई विकल्प नहीं है। उस नाते केजरीवाल हों या नरेंद्र मोदी, पिछले दस वर्षों में चुनाव, वोट राजनीति और सत्ता के जालों से अखिल भारतीय विकास की तस्वीरों में यह फर्क बेमानी है कि दिल्ली ज्यादा बरबाद है बनिस्पत मुंबई या कोलकाता के!

सवाल है क्योंकर केजरीवाल का मकड़जाल इतनी जल्दी खत्म हुआ? इसलिए क्योंकि उन्हीं के हाथों पार्टी बनी और वे पहले दिन से ही व्यक्तिवादी जाला बुनते हुए थे।(delhi assembly election)

आप में सब कुछ बिना संगठन के था। बिना काबिल, वफादार और विचार विशेष के प्रतिबद्ध लोगों के था। तभी आगे देखिएगा उनके सांसद, विधायक सब उन्हें एक के बाद एक छोड़ेंगे। दिल्ली में उनकी राजनीति को कंधा देने वाला कोई नहीं होगा।

केजरीवाल ने संगठन नहीं बनाया। विचार-भावना विशेष की प्रतिबद्धता नहीं बनाई। इस चुनाव में वे प्रशांत किशोर की टीम, आईपैक के लोगों के बूते चुनाव लड़ते हुए थे।

कांग्रेस की पूंजी कुछ हद तक अभी है

केजरीवाल के हस्र से आगे यह देखना-जानना दिलचस्प होगा कि प्रशांत किशोर चुनाव की अपनी सर्वज्ञता में बिहार में अपने को आगे कितना दांव पर लगाते हैं?(delhi assembly election)

व्यक्ति केंद्रित राजनीति में प्रशांत किशोर, तेजस्वी, अखिलेश के आगे जितने भी चुनाव हैं उन पर भाजपा का रोडरोलर बतला देगा कि भावना, विचार, संगठन के बिना नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, भाजपा के आगे कोई सरवाइव नहीं करने वाला है।

हां, यदि कांग्रेस का सहारा (जैसे हेमंत सोरेन ने लिया या लालू लेते हैं) लिया तब जरूर उसके आइडिया, भावना, संगठन से इनकी व्यक्तिवादी लड़ाई कायदे की हो सकती है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की व्यक्तिवादी राजनीति के साथ सौ साल पुराने आरएसएस का तानाबाना है।

संगठनों का वह नेटवर्क है, जो जीवन के हर पहलू में, देश के हर कोने में अपने चेहरे और संगठन लिए हुए है। यही कांग्रेस की भी पूंजी थी और कुछ हद तक अभी है।(delhi assembly election)

कांग्रेस केवल राहुल का चेहरा नहीं है, बल्कि एक आइडिया, एक संगठन और विरासत से देश के हर कोने में पहुंच लिए हुए है।

कांग्रेस के कारण सबके अवसर रहे(delhi assembly election)

आजाद भारत का इतिहास यह सत्य भी रेखांकित किए हुए है कि कांग्रेस के कारण सबके अवसर रहे हैं।(delhi assembly election)

कांग्रेस से ही हिंदू राजनीति, जात राजनीति, क्षेत्रीय अस्मिताओं की राजनीति, लाल बहादुर शास्त्री, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह जैसे सुधी-ज्ञानी जनों को अवसर मिले।

तभी तमाम बुराइयों, विकृतियों के बावजूद कांग्रेस, उसका आइडिया, संगठन व चेहरे का अपना वजूद है और देश के अस्तित्व में उसका अस्तित्व एक आवश्यकता है।

हालांकि इस सबका बोध राहुल गांधी को नहीं है। वे भी कांग्रेस की मूल भावना, संगठन की उपेक्षा में केजरीवाल तथा अखिलेश जैसा व्यक्तिवादी, जुमलावादी मकड़जाल (जाति जनगणना, रेवड़ियों आदि के फिजूल तानेबाने से) बना रहे हैं और संगठन तथा मूल विचारों की उपेक्षा की हुई है।(delhi assembly election)

तभी छतीसगढ़ से महाराष्ट्र, हरियाणा सभी और धक्के लगातार हैं। बावजूद इसके दिल्ली का चुनाव बताता है कि विपक्ष का जैविक अस्तित्व कोई है तो वह कांग्रेस है। शायद यह अरविंद केजरीवाल को भी अब समझ आया हो!

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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