छह मार्च 2025 की तारीख चीन और विश्व राजनीति में निश्चित ही याद रहेगी। कोई न माने इस बात को लेकिन चीन ने इस दिन अपने को विश्व की प्रथम महाशक्ति घोषित किया। कथित नंबर एक महाशक्ति अमेरिका और उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से उसने कहा, “यदि अमेरिका युद्ध चाहता है, फिर वह टैरिफ युद्ध हो, व्यापार युद्ध हो या किसी अन्य प्रकार का भी युद्ध हो, हम अंत तक लड़ने के लिए तैयार हैं”। सोचें, कोई देश इस वाक्य से ज्यादा किसी देश को सार्वजनिक तौर पर क्या चुनौती दे सकता है? नोट करें, डोनाल्ड ट्रंप, अमेरिकी विदेश मंत्री ने अभी तक पलट कर जवाब नहीं दिया है। जबकि चीन ने ट्रंप के टैरिफ के फैसले के जवाब में उन अमेरिकी निर्यातक कंपनियों को भी ब्लैकलिस्ट किया है जो चीन को चिकन से लेकर सोयाबीन बेचती हैं।
इतना ही नहीं वाशिंगटन के अमेरिकी दूतावास ने भी ‘अंत तक लड़ने के लिए तैयार’ की घोषणा के ट्विट को दोहराया। साफ है चीन ने बताया है कि उसे अमेरिका की परवाह नहीं है। वह लड़ने को तैयार है। सन् 2008 में चीन ने ओलंपिक खेलों का आयोजन कर दुनिया को अपनी समृद्धि और ताकत से रूबरू कराया था। कोई 17 वर्ष बाद वह अमेरिका को हर तरह की प्रतिस्पर्धा, युद्ध की चुनौती देते हुए है! इससे आगे की विश्व राजनीति के कई सिनेरियो हैं।
क्या है भविष्य? चीन की हॉन सभ्यता अपनी धुरी पर पश्चिमी सभ्यता, हिंदू और इस्लामी सभ्यताओं के सभी देशों पर दबदबा बनाने की ओर है। 1962 को याद करें। चीन ने भारत को, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बड़बोली विदेश नीति, कथित वैश्विक गुरूता, ताकत का कैसा कचूमर निकाला था। उसने भारत की हजारों वर्गमील जमीन कब्जाई। माओ और चाऊ एन लाई का वह पैंतरा, जहां भारत को हैसियत बतलाना था वहीं एशिया की एकमेव महाशक्ति की डुगडुगी भी थी।
सन् 1948 के बाद चीन ने रूस से झगड़ा किया। भारत और वियतनाम पर हमला किया तो बैकग्राउंड में उस मंचू राष्ट्रीयता, सभ्यता, संस्कृति का वह दर्प, वह अहंकार था, जिसमें चीन का बादशाह अपने को विश्व की धुरी, केंद्र बिंदु समझता है। इतिहास में उसने हमेशा अपने साम्राज्य को मिडल किंगडम माना तथा बाकी देशों को दोयम दर्जे का अपना अधीनस्थ। अमेरिका से पूंजी, तकनीक पाने के लिए माओ और देंग ने जब हेनरी किसिंजर, निक्सन प्रशासन को पटाया तब भी वे बातचीत में भारत को गाय, रूस को बेकार बताते थे।
इसलिए मानव सभ्यता के इतिहास के इस सत्य को गांठ बांधे रहना चाहिए कि चाइनीज सभ्यता, संस्कृति यदि प्राचीन है तो वह अपने अतीत के गौरव बोध की मनोवृत्तियों का निचोड़ भी है। अर्थात चाइनीज थिंकटैंक, सत्ता वर्ग जहां अपने को सर्वोत्तम मानते हैं वहीं उन्हें दुनिया अपनी मर्जी, अपने स्वार्थों में चलानी है। निश्चित है राष्ट्रपति शी जिनफिंग और उनका कुलीन वर्ग लोगों के कंफ्यूशियस अनुशासन, व्यवहार, मंचू राष्ट्रीयता के साथ साम्यवाद और पूंजीवाद के मिक्स के फायदों से चीन को एडवांटेज की स्थिति में मानता हैं तो नेतृत्व वह अहंकारी, पैना और महत्वाकांक्षी रोडमैप बनाए हुए है, जिससे दुनिया जीतनी ही है!
इस महत्वाकांक्षा और रोडमैप को बूझने में बाकी सभ्यताएं फेल हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे पर अमेरिकियों को जैसा बहकाया और मूर्ख बनाया है उसकी जड़ में चीन है याकि रिपब्लिकन पार्टी के निक्सन व रोनाल्ड रीगन आदि का प्रशासन जिम्मेवार था। सोचें, अमेरिका अब क्यों नहीं ‘फर्स्ट’ रहा? इसलिए क्योंकि चीन ने उसका मैन्यूफैक्चरिंग, निर्माण क्षेत्र खाया। और अमेरिका स्वंय चीनी सामानों से पट गया। अमेरिकियों के काम धंधे, उद्योग, रोजगार खत्म हुए। अमेरिकी कंपनियों ने ही चीन में फैक्टरियां लगा कर अमेरिका को सामान बेचा तो दुनिया को भी बेचा और इससे अमेरिका का निर्यात घटा। उसका विदेश व्यापार हर तरह असंतुलित व घाटे का सौदा हुआ।
चीन का यह खेला सभी देशों के साथ, पूरी दुनिया में हुआ। जैसा अमेरिका के साथ हुआ, वैसा भारत के साथ हुआ, रूस के साथ हुआ। रूस अब चीन का पिछलग्गू है। एक वक्त वह चीन से बहुत आगे, विश्व महाशक्ति था। अब वह एक छोटे से देश यूक्रेन की लड़ाई में चीन पर आश्रित है, उत्तर कोरिया के भाड़े के सैनिकों के भरोसे है। और 1947 व 1948 में क्रमशः स्वतंत्र हुए भारत और चीन की तुलना की यह हकीकत भी जान लें कि अंग्रेजों ने चीन की दशा के मुकाबले भारत को बेहतर छोड़ा था। भारत कई मामलों में आगे था जबकि अब भारत चीन की आर्थिकी पर आश्रित है! चीन उत्पादक, व्यापारी है तथा भारत उसका बाजार!
ऐसे में चीन क्यों न अमेरिका को औकात बताए कि आ, जाओ मैदान में, कोई भी युद्ध लड़ लो! यह आत्मविश्वास इस बात का प्रमाण है कि चीन अब अपनी विश्व व्यवस्था, वित्तीय व्यवस्था बनाने के लिए कमर कस चुका है। वह आदर्श समय आया मान रहा है। डोनाल्ड ट्रंप की मूर्खताओं से पश्चिमी सभ्यता में दरार पैदा हो गई है। हालांकि मेरा मानना है कि यह अच्छा भी है। अमेरिका से सर्तक हो कर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ अपनी महाशक्ति को अमेरिका से स्वतंत्र व स्वायत्त बनाने का मिशन बना बैठे है। नए चांसलर की कमान में जर्मनी बहुत जल्दी एटमी महाशक्ति बनने का निर्णय करेगा। फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन पूरे यूरोपीय संघ याकि महाद्वीप की रक्षा का परमाणु कवच बनाएंगे। ऐसा होना चीन, रूस की योजना के लिए कतई सही नहीं होगा। इनके लिए संकट ही होगा।
सवाल है चीन यदि यूरोपीय देशों को साथ ले कर यूक्रेन मसले में रूस को शांति के लिए मजबूर करे तो क्या यूरोपीय देश उससे आश्वस्त नहीं होंगे, उसके कायल नहीं होंगे? अर्थात नाटो देशों की जमात में डोनाल्ड ट्रंप के उत्पात का चीन फायदा उठा सकता है। पुतिन व शी जिनफिंग दोनों के लिए मौका है जो यूक्रेन की लड़ाई रोक कर यूरोपीय संघ में वाहवाही पाएं। रूस का बहिष्कार खत्म हो तथा अमेरिकी विश्व व्यवस्था के आगे चीन की आवश्यकताओं में यूरोपीय संघ तटस्थ हो जाए। आखिर चीन का प्राथमिक मकसद अमेरिका केंद्रित वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को कमजोर या खत्म करना है। अपनी नई विश्व व्यवस्था बनानी है।
यह नामुमकिन नहीं मगर फिलहाल संभव नहीं लगता। आखिर पुतिन तानाशाह, अहंकारी राष्ट्रपति हैं। इसलिए वे डोनाल्ड ट्रंप पर फोकस रखेंगे। फिर सबसे बड़ी बात ब्रिटेन, फ्रांस, पोलैंड, जर्मनी आदि देशों की सीमा या पड़ोस में रूस का खतरा स्थायी है। अनुभवजन्य है। हालिया घटनाओं से अलग यह साबित हुआ है कि कुछ भी हो, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, स्कैंडिनेवियाई देश मानव स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों के ठोस संस्कारों में रचे बसे हैं बनिस्पत अमेरिका के। इसलिए चीन और रूस से यूरोपीय देशों की भरोसेमंद केमिस्ट्री बने यह न लंदन, पेरिस में सोचा जा सकता है और न बीजिंग और मास्को में!
तभी चीन यूरोप में झगड़ा बनवाए रखने, अमेरिका बनाम यूरोप के विवाद को हवा देगा। आखिर लोकतांत्रिक देश जितने बिखरेंगे, आपस में लड़ेंगे और लोगों का लोकतंत्र पर विश्वास जितना डगमगाएगा उतना ही चाइनीज सभ्यता को लिए मौका बनेगा। चीन ने एशिया, अफ्रीका, इस्लामी देशों, लातिनी अमेरिका में अपना इतना गहरा तानाबाना बना लिए है। उसे अगले कदम के लिए इतनी भर जरूरत है कि दूसरे महायुद्ध के बाद जो चला आ रहा था वह बिखरे। व्यवस्था में अराजकता आए और चीन को देशों को बचाने, उनकी व्यवस्था बनवाने का जिम्मा मिले।
चीन के इरादों का एक ताजा प्रमाण यह भी है जो वह भारत को फुसला रहा है। उसे भारत की भीड़, भीड़ के बाजार की संख्या चाहिए। चाइनीज संसद याकि नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की बैठक के बाद चीन के विदेश मंत्री वांग यी का यह कहना मामूली नहीं है कि, “ड्रैगन और हाथी को साथ नचाना (भारत और चीन की दोस्ती) ही एकमात्र सही विकल्प है”।….”एक दूसरे को नीचा दिखाने के बजाय समर्थन करना और एक दूसरे से बचने के बजाय सहयोग को मजबूत करना हमारे बुनियादी हितों में है”। उन्होने यह भी कहा कि यदि एशिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आपस में मिल जाएं तो “अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लोकतंत्रीकरण के साथ साथ ‘ग्लोबल साउथ’ के विकास तथा सुदृढ़ीकरण का भविष्य उज्जवल होगा”।
पर भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे वह कदमताल में चीन के साथ नाचे! वह ड्रैगन की पूंछ पकड कर उसके रहमोकरम में उड़ता भले रह सकता है। पर शाकाहारी हाथी आग उगलते ड्रैगन से मर्यादा व समानता की उम्मीद नहीं कर सकता। चीन ने पिछले 78 वर्षों में हर मोड़ पर विस्तारवादी सोच दर्शाई है। मेरा मानना है चीन भविष्य में अमेरिका से पंगा बढ़ा कर ताइवान पर कब्जा करेगा। जापान, दक्षिण कोऱिया देखते रहे जाएंगे। इससे डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका दुनिया के आगे नाकारा और असमर्थ समझा जाने लगेगा। उससे भरोसा खत्म होगा। फिर चीन का अगला लक्ष्य भारत का अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम व लद्दाख होंगे। बशर्ते भारत उसके वैसे ही अधीनस्थ न हो जाए जैसे नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका अब लगभग हैं। ड्रैगन को येन केन प्रकारेण भारत को अपने नियंत्रण में लेना है। ललचा कर, आश्रित बना कर या डरा कर वह 145 करोड़ की भारत भीड़ को अपना पुछल्ला बनाने के जतन जरूर करेगा।
मेरा मानना है बीजिंग नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के दौरान चीनी नेताओं ने डोनाल्ड ट्रंप और परिस्थितियों का आकलन करके ही अमेरिका को ललकारा है कि आ जाओ, हम तैयार हैं किसी भी तरह की लड़ाई के लिए। स्वाभाविक है तब यह भी सोचा गया होगा कि ऐसी नौबत में किस किस से लड़ना है, किसे तटस्थ बनाना है और कौन साथ होगा और कौन दुश्मन?
सवाल है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (भारत में एक ही तो सर्वज्ञ हैं) क्या सोच रहे होंगे? अंबानी, अडानी के हित क्या बोल रहे होंगे? मेरा मानना है कि शायद इतना भर कि, हमें दुनिया से क्या लेना देना, हमें तो धंधा करना है। सबसे धंधा करो, सबको खुश रखो! और यह सोच चीन भी जानता होगा! सो तय माने चीनी सभ्यता भविष्य में कई देशों को बिना जीते भी गुलाम और आश्रित बनाए हुए होगी!