rahul gandhi : राहुल गांधी 35 साल की उम्र में 2004 में सांसद बने थे। तब से यानी पिछले 20 साल से अपनी टीम बनाने की कोशिश में हैं।
एक बार उन्होंने 2009 में राजकुमारों की टीम बनाई थी, सबको मंत्री बनाया था लेकिन उनमे से ज्यादातर लोग कांग्रेस छोड़ कर चले गए।
परंतु उनकी इस राजनीति का नतीजा यह हुआ है कि सोनिया गांधी की टीम बनाम राहुल गांधी की टीम यानी पुराने और नए नेताओं का झगड़ा स्थायी बना। (rahul gandhi)
अब जबकि कांग्रेस के ज्यादातर पुराने नेताओं का या तो निधन हो गया है या वे रिटायर है या हाशिए में चले गए है तो राहुल गांधी फिर नई टीम बना रहे हैं। इस बार उनकी विचारधारा भी बदली हुई है, राजनीतिक लाइन भी अलग है और चेहरे भी अलग हैं।
उनकी राजनीति को समझाने के लिए बिहार कांग्रेस के एक बहुत पुराने नेता, जो डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र के बहुत करीबी रहे नेता ने कहा है कि वामपंथी राजनीति देश में लगभग खत्म हो गई है, केरल के अलावा अगर वह कहीं बची है तो राहुल गांधी की टीम में बची है।
also read: IND vs PAK : महामुकाबले से पहले सामने आई भारत पाकिस्तान की प्लेइंग-11….
आरक्षण की सीमा 75 फीसदी (rahul gandhi)
पता नहीं यह बात पूरी तरह से सही है या नहीं लेकिन इतना दिख रहा है कि वामपंथी विचारधारा से जुड़े या एनजीओ के अंदाजा में काम करने वाले युवा राहुल गांध की कोर टीम में जुड़े हैं।
खुद राहुल गांधी जाति गणना कराने, आरक्षण की सीमा 50 हजार से ज्यादा करने, आबादी के अनुपात में राजनीतिक व प्रशासनिक पद देने आदि के विचार में काम कर रहे हैं। (rahul gandhi)
अपनी इसी समझ में वे टीम चुन रहे हैं। नेताओं की योग्यता, उनकी क्षमता, राजनीतिक अनुभव, जनता के साथ संपर्क आदि को दरकिनार करके वे उन लोगों को संगठन में आगे बढ़ा रहे हैं, जिन लोगों का विचार है कि आरक्षण की सीमा 75 फीसदी होनी चाहिए।
पार्टियों के संगठन के पद जाति व धर्म के आधार पर भरे जाने चाहिए। प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में ओबीसी, दलित, आदिवासी को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
11 केंद्रीय पदाधिकारियों की नियुक्ति
इसी सोच में उन्होंने 11 केंद्रीय पदाधिकारियों की नियुक्ति कराई है। इनमें आठ नेता ओबीसी, दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के हैं। (rahul gandhi)
हालांकि ऐसा नहीं है कि ये सभी नेता स्वाभाविक प्रक्रिया से निकल कर ऊपर तक पहुंचे हैं और किसी पूर्वाग्रह की वजह से पहले उनको जिम्मेदारी नहीं मिल रही थी।
दो प्रदेशों में पिछड़ा और दलित अध्यक्ष बनाने के बाद 11 केंद्रीय पदाधिकारियों की नियुक्ति को देख कर लग रहा है कि कैसे रैंडम तरीके से नेता चुने जा सकते हैं और उन्हें जिम्मेदारी दी जा सकती है।
नई नियुक्तियों में कोई तारतम्य नहीं दिख रहा है। तेलुगू भाषी व्यक्ति को झारखंड और कन्नड़ भाषी व्यक्ति को बिहार का प्रभारी बनाने के पीछे क्या सोच हो सकती है, यह कोई नहीं बता सकता है।
अब तक परदे के पीछे से काम कर रहे लोगों को घनघोर राजनीति करने वाले राज्यों में प्रभारी बना कर भेजने के पीछे भी क्या सोच है, यह कोई नहीं बता पाएगा। (rahul gandhi)
बरसों से इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को कांग्रेस की परंपरा से निकले नेताओं को आगे लाना चाहिए। जैसे भाजपा में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रशिक्षण से निकले नेता भाजपा संगठन में रोल निभा रहे हैं।
वे कितने योग्य और सक्षम हैं यह अलग बात है लेकिन कम से कम एक पृष्ठभूमि है। लेकिन कांग्रेस में एनएसयूआई की पाठशाला से निकला शायद ही कोई नेता संगठन में अहम पदों पर होगा।
राहुल गांधी ने तो एनएसयूआई यानी कांग्रेस की राजनीति की नर्सरी का ही प्रिंसिपल सीपीआई से आए कन्हैया कुमार को बना दिया है। कन्हैया एनएसयूआई के प्रभारी हैं।
कांग्रेस में तो ऐसा कोई खतरा नहीं (rahul gandhi)
भाजपा में तो समझ में आ रहा है कि 50 से 55 साल के नेताओं और पहली, दूसरी बार के विधायकों, सांसदों को अहम जिम्मेदारी इसलिए दी जा रही है ताकि वे चुनौती नहीं बन सकें।
कांग्रेस में तो ऐसा कोई खतरा नहीं है। नेहरू, गांधी परिवार के लिए कोई चुनौती नहीं बन सकता है। वहां आरएसएस जैसी किसी संस्था की पसंद, नापसंद का ख्याल भी नहीं रखना है।
फिर क्यों मजबूत नेताओं की जगह परदे के पीछे काम करने वालों को निजी निष्ठा के आधार पर नियुक्त किया जा रहा है? (rahul gandhi)
समस्या यह भी है कि राहुल गांधी, जिसको चुन देते हैं या कहीं बैठा देते हैं तो वह सुप्रीम हो जाता है। वह किसी को कुछ नहीं समझता है।
दिल्ली में प्रभारी के अलावा किसी की बात नहीं सुनी जाती है। जैसे महाराष्ट्र में नाना पटोले अध्यक्ष बने तो बाकी सारे नेता हाशिए में डाल दिए गए। पटोले खुद ही सीएम दावेदार हो गए।
ऐसे ही मध्य प्रदेश में पहले कमलनाथ थे और अब जीतू पटवारी हैं। छत्तीसगढ़ में जो हैं सो भूपेश बधेल हैं और हरियाणा में सब कुछ भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हवाले था। (rahul gandhi)
हर राज्य में कांग्रेस के पास ऐसे नेता
तेलंगाना के सारे फैसले मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी के हवाले छोड़े गए हैं तो हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सिंह सुक्खू को ऐसी ताकत दी गई कि वीरभद्र सिंह का परिवार नाराज हुआ। प्रदेश अध्यक्ष या मुख्यमंत्री या प्रभारी इनके अलावा प्रदेश की राजनीति में किसी की नहीं चलती है।
कोई स्वतंत्र फीडबैक नहीं ली जाती है। अभी तक यह सिस्टम चल रहा है कि अगर प्रदेश का कोई नेता इन तीन के खिलाफ शिकायत करे तो घूम फिर कर वह शिकायत इन्हीं के पास पहुंच जाती है। (rahul gandhi)
राहुल अपनी कोर टीम के सदस्यों को फील्ड की राजनीति के लिए भेज रहे हैं और उनके अलावा मल्लिकार्जुन खड़गे या प्रियंका गांधी वाड्रा के प्रति निजी निष्ठा वालों को महत्वपूर्ण पद दिए जा रहे हैं।
इससे दूसरी लाइन खड़ी नहीं होगी। स्वाभाविक राजनीति से जो नेता निकले हैं उनकी बड़ी तादाद अब भी है। कांग्रेस उन्हीं के दम पर भाजपा को चुनौती दे सकती है। लगभग हर राज्य में कांग्रेस के पास ऐसे नेता हैं।