यों यह सवाल गलत है। इसलिए क्योंकि हम हिंदुओं में महिमा ‘गद्दी’ की है विचार की नहीं! ‘गद्दी’ याकि ‘आसन’ जो होता है उस पर कोई भी बैठे वही फिर सर्वज्ञ है, देवज्ञ है। तब दिमाग और विचारने की भला क्या जरूरत। गद्दी ‘प्रधानमंत्री’ की हो या मुख्यमंत्री, पीठ या मठ विशेष की। या फिर कोलकत्ता के कपड़ा बाजार में दुकानदार या औद्योगिक घराने की ‘गद्दी’। जो भी गद्दी पर बैठा वह ‘गद्दी’ की विरासत, शक्ति, दिमाग से ईश्वर और मालिक बना होता है। ‘गद्दी’ की वाणी ही तब व्यक्ति के मुंह से सुनाई देगी।
इसलिए गुजरे सप्ताह जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागपुर के संघ मुख्यालय गए, मोहन भागवत से सीधे मुलाकात की तो चर्चा स्वभाविक थी कि प्रधानमंत्री की गद्दी पर विराजमान नरेंद्र मोदी और आरएसएस की गद्दी के प्रमुख मोहन भागवत में क्या बात, क्या विचार हुआ? ध्यान रहे प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी यों तीन-चार दफा नागपुर गए है लेकिन वे कभी संघ मुख्यालय नहीं गए। पहली बार वे माधव नेत्रालय के प्रीमियर सेंटर की आधारशिला के कार्यक्रम के बहाने संघ मुख्यालय गए। मेरा मानना है ऐसा होना नरेंद्र मोदी के शुकराचार्य महाराज सुरेश सोनी के समझाने से हुआ होगा।
आखिर प्रधानमंत्री का एक साल और पूरा होने को है। उन्हे पार्टी का नया अध्यक्ष तय करना है। तो उससे पहले औपचारिकता के ही खातिर मैसेज बनना चाहिए कि वे तो संघ के ही है। उनका फैसला संघ का फैसला। सो अब वे किसी को भी अध्यक्ष बनाएंगे तो सभी मानेंगे मोहन भागवत से पूछकर किया होगा।
फालतू की बाते है। नरेंद्र मोदी एकमेव वैसे ही आज सर्वेश्वर है जैसे नेहरू प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस संगठन और गांधी के आईडिया के परम पितामह थे। मैं इन दिनों भारत के सभी प्रधानमंत्रियों का इतिहास खगाल रहा हूं। और सत्व-तत्व यही निकलता है कि हिंदुओं की नियति है सत्ता की अधीनता।
तभी नेहरू ज्योंहि अंतरिम प्रधानमंत्री बने, सरदार पटेल उनके गृहमंत्री हुए तो उस समय का रिकार्ड है कि दोनों ने गांधी की अनसुनी की। 1947 से पहले ही गांधी के डायलाग थे – “मैं वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती नहीं दे सकता।“… “मैं क्या कर सकता हूँ?” आदि, आदि।
इसलिए अटलबिहारी वाजपेयी की ‘गद्दी’ की सर्वज्ञता के आगे कभी सुदर्शन बेबस थे तो सत्ता की ‘गद्दी’ पर विराजमान लाइव सर्वज्ञ नरेंद्र मोदी के आगे भला क्या तो मोहन भागवत और क्या 140 करोड़ लोगों का दिमाग। एक समय में एक ही भगवान अवतरित होते है।
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इस मामले में जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी में सचमुच कोई फर्क नहीं है। नेहरू ने भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद अपनी सर्वज्ञता में भारत को विश्वगुरू, समाजवादी, निर्गुट-तटस्थ, दुनिया को रास्ता बतलाया था। अब नरेंद्र मोदी भारत को विश्वगुरू बना चुके है। विकसित बना देंगे। नेहरू के सामने भी चीन का संकट था, गरीबी-बेरोजगारी का संकट था, भूखमरी के आगे राशन के फार्मूले थे अब आबादी की संख्या और भूख तथा बेरोजगारी के नए रूप है।
तो उनके रामबाण समाधान में हिंदू बनाम मुस्लिम झगड़ा और रेवडियां है ताकि लोग बहके रहे। सोचना बंद रखें।
सदियों पुराना इतिहास है कि हम हिंदू ‘गद्दी’ पर बैठे राजा, संत, सेठ, हाकिम के आगे हमेशा समर्पित रहते आए है। भक्ति में रहते है। खौफ में रहते है। दोनों तरफ दिमाग और उसका सोचना-विचारना संभव ही नहीं है। जिसकी जितनी बड़ी गद्दी उस पर बैठे व्यक्ति की उतनी बड़ी ‘लाइव’ उपस्थिति और महानता।
इसलिए इन बातों का अर्थ नहीं है कि प्रधानमंत्री ने संघ की तारीफ में क्या-क्या कहां, कब-कब कहां? और संघ उन पर कितना फिदा हुआ। हर फैसला नरेंद्र मोदी का है। पार्टी अध्यक्ष भी केवल उनके टिक से वैसे ही बनेगा जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या मंत्री होते है।
सत्ता की प्रधानमंत्री ‘गद्दी’ के आगे भारत सदैव एक भाव में रहेगा। न इधर विचार और हिम्मत संभव है और न उधर। सारी माया कुर्सी की, गद्दी की। उस नाते हमारी उपलब्धि इतनी भर है कि 1947 से जैसे भी हो दिल्ली का तख्त, उसकी ‘गद्दी’ पर हिंदुओं के आने-जाने का सिलसिला बना हुआ है।
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