हां, मुझे न चार सौ पार की सुनामी दिख रही है और न किसी एक पार्टी का चार जून को बहुमत होता लगता है। निश्चित ही मोदी के समय यह अनहोनी बात है। मगर ऐसी संभावना खुद नरेंद्र मोदी व अमित शाह अपने हाव-भाव, भाषणों से बतला रहे हैं। नरेंद्र मोदी घबराए हुए हैं। तभी प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ताक में रख दिया है। वे मतदान के पहले चरण तक अति आत्मविश्वास में बहुत हांक रहे थे। लेकिन 19 अप्रैल को राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश, बिहार, छतीसगढ़ आदि में कम मतदान का उन्हें अर्थ समझ आया।
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अहसास हुआ अब सभाओं में यूथ मोदी, मोदी का हल्ला नहीं करते दिखता है। 2014 व 2019 से अलग माहौल है सो, अगले दिन से मुसलमान टारगेट में। राजस्थान के आदिवासी बहुल बांसवाड़ा के भाषण में उन्होंने महिलाओं को डराया कि कांग्रेस तुम्हारा मंगलसूत्र छीन कर मुसलमानों को बांटेगी। मतलब सबका साथ-सबका विकास की हवाबाजी से अपने चेहरे को दुनिया में जो चमकाया था वह खत्म और फिर प्रगट हुआ गुजरात दंगों के समय हिंदू-मुस्लिम डिवाइडर का चेहरा!
सोचें, एक झटके में विकसित भारत, सुनहरा भारत, राम मंदिर के वे तमाम मुद्दे हाशिए में जिन पर चुनाव प्रचार की भाजपा रणनीति थी। विकसित भारत के जुमले की जगह मुसलमान, अधिक बच्चे पैदा करने वाले लोग, घुसपैठिए, देशद्रोही आदि-आदि।
जैसा मैंने पिछले सप्ताह लिखा, मोदी-शाह को उनकी चतुराई ले डूब रही है। चार सौ सीटों की हवाबाजी करके इन्होंने भक्तों को घर बैठा दिया। मोदी ने अनाम, नए चेहरों को उम्मीदवार बना कर भाजपा कार्यकर्ताओं, सीटिंग सांसदों, विधायकरों, संगठन नेताओं का चिढ़ा दिया। तभी जो सीटिंग सांसद उम्मीदवार हैं वे या तो एंटी इनकम्बेंसी के मारे हैं या अपने बूते चुनाव की मेहनत इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि मोदी ने कहा हुआ है कि मोदी के नाम पर वोट पड़ेंगे। तब भला मुझे क्यों मेहनत करनी, क्यों पैसा खर्च करना, क्यों तब सबके आगे हाथ जोड़कर भीख मांगनी है, जब ऊपर से नरेंद्र मोदी मुझे जीता रहे हैं!
ऐसे दसियों कारण हैं, जिनसे उत्तर भारत की गोबर पट्टी में, हिंदी भाषी इलाकों में चुनाव का जोश नहीं है। भक्त वोट दे रहे हैं लेकिन वोट पड़वा नहीं रहे हैं। वही दूसरी तरफ मोदी विरोधी लोग, वोट और समुदाय बिना शोर के रूटिन में वोट डाल रहे हैं। और ये वोट लोकल उम्मीदवार, भाजपा सांसद, मंत्री, मोदी-शाह को हराने के लोकल समीकरणों के साथ है।
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उदाहरण के लिए राजस्थान। मैं गुजरात, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, यूपी की तरह राजस्थान को नरेंद्र मोदी के जादू का अभेदी किला मानता हूं। कोई कारण नहीं जो भाजपा सभी 25 सीट नहीं जीते। लेकिन उम्मीदवार तय होते ही न जाने कैसे मुकाबले का हल्ला। मरी हुई कांग्रेस, बेजान प्रदेश कांग्रेस नेता और न खर्च के लिए पैसा और न उम्मीदवारों के पास भाजपा संगठन की काट वाली कोई मशीनरी। बावजूद इसके जातियों, समुदायों और लोकल कारणों से लोग भाजपा उम्मीदवारों के प्रति क्योंकि बेरूखी लिए हुए हैं तो अपने आप कांटे की लड़ाई का हल्ला हुआ। चुरू, दौसा, सीकर, झुंझनू, नागौर, जयपुर देहात, करौली, श्रीगंगानगर, बाडमेर, बांसवाड़ा, जालौर में भाजपा के फंसे होने की बात तो वही भाजपा के दिग्गज चेहरों की कोटा, बीकानेर और अलवर जैसी सीटों पर भी कांटे की लड़ाई का हल्ला। यह चौंकाने वाली अविश्वसनीय बात है। इसलिए मेरा निष्कर्ष है कि यदि राजस्थान में भाजपा चार सीट भी हारती है या मध्य प्रदेश में तीन सीट, छतीसगढ़ में दो-तीन सीट भी भाजपा हारती है और उत्तर प्रदेश में वह 65 सीटों पर भी अटकती है तो पहली बात भाजपा को अकेले बहुमत नहीं बनेगा। और अगली लोकसभा त्रिशुंक।
इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, बंगाल में हवा (आंधी, सुनामी) का जो भरोसा बनाया वह बेमतलब है। उत्तर भारत में जब नरेंद्र मोदी 2019 या 2014 जैसे नतीजे नहीं ले पा रहे हैं तो कर्नाटक, तेलंगाना, केरल, आंध्र प्रदेश जैसे प्रदेशों में क्या चमत्कार दिखलाएंगे?
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हां, भाजपा के बहुमत की 273 सीटों के लिए जरूरी है कि वह 2014 व 2019 के चुनाव में अपने 11 भगवा राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, झारखंड, छतीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल) की 228 सीटें ज्योंकि त्यों जीते। मैं इसमें महाराष्ट्र को इसलिए शामिल नहीं कर रहा हूं क्योंकि वहां भगवा की मशाल लिए उद्धव ठाकरे भी हैं। वे भाजपा को जबरदस्त चुनौती देते हुए हैं और महाराष्ट्र में अनहोनी होनी है।
तो नरेंद्र मोदी के यदि 11 भगवा राज्यों की 2019 में जीती गई सीटों में से प्रति प्रदेश एक या दो या तीन या चार या पांच सीट का भी नुकसान हुआ तो पार्टी का तब बहुमत कहां से बनेगा? जबकि हर कोई महसूस करते हुए है कि कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान सभी जगह कुछ-न-कुछ तो गुलगपाड़ा होना ही है।
तभी त्रिशंकु लोकसभा की संभावना पर सोचना शुरू कर देना चाहिए।