यों इस मामले में भारत किसी भी देश से सीख सकता है। अमेरिका, यूरोप या ब्रिटेन की बात छोड़ें तो भारत ताइवान या चीन से सीख सकता है। शिक्षा की तरह स्वास्थ्य पर भी भारत का खर्च बहुत मामूली है और जो है उसकी भी दिशा सही नहीं है। भारत में चाहे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार हो या राज्यों की सरकारें सबने स्वास्थ्य बीमा योजना के बारे में सीख लिया है। सब बड़ी बड़ी रकम की बीमा करने की घोषणा करते हैं, जिसका वास्तविक लाभ आम लोगों को कम ही मिल पाता है। इसका फायदा अस्पताल और बीमा कंपनियां उठाती हैं। प्रधानमंत्री के अपने राज्य गुजरात में आयुष्मान योजना के तहत फ्रॉड की दर्जनों खबरें आईं। अस्पतालों ने झूठे ऑपरेशन किए और पैसे लिए। दिल्ली में फर्जी जांच लिखने और फर्जी इलाज के कितने खुलासे हुए। बीमा कराने और उसकी किस्तें भरने की बजाय सरकार अगर अस्पताल बनवाने, मेडिकल व नर्सिंग कॉलेज खोलने, आधुनिक उपकरणों की उपलब्धता सुनिश्चित करने, डॉक्टरों की बहाली करने और गुणवत्तापूर्ण सस्ती दवाएं सुलभ कराने पर सोचती तो ज्यादा लोगों का भला होता।
भारत के पड़ोसी चीन में 90 फीसदी लोगों की स्वास्थ्य जरुरतें सरकारी अस्पतालों से पूरी होती है। वहां निजी अस्पतालों का नेटवर्क बहुत छोटा है। ज्यादातर लोगों का गुणवत्तापूर्ण इलाज सरकारी अस्पतालों में होता है। सरकारी अस्पतालों में आधुनिक सुविधाएं हैं और डॉक्टर भी निजी अस्पतालों से अच्छे हैं। चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का करीब सवा सात फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। इसके मुकाबले भारत का खर्च जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है। हालांकि चीन के सवा सात फीसदी बनाम भारत के दो फीसदी का आंकड़े पेश करने से वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आती है। क्योंकि चीन की जीडीपी का आकार भारत की जीडीपी से तीन गुना से ज्यादा बड़ा है। यानी अगर सवा सात फीसदी और दो फीसदी से लग रहा है कि चीन भारत से करीब चार गुना ज्यादा खर्च कर रहा है तो इसका असली मतलब है कि 12 गुना ज्यादा खर्च कर रहा है।
भारत उसके मुकाबले बहुत पीछे है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एक लाख व्यक्ति पर 64 डॉक्टर उपलब्ध हैं, जबकि दुनिया का औसत डेढ़ सौ का है। यानी एक लाख आबादी पर डेढ़ सौ डॉक्टर। यह भारत के मुकाबले तीन गुना है। नर्स या कंपाउडर की संख्या से देखें तब भी दुनिया का औसत भारत से बहुत बेहतर है। भारत में एक हजार लोगों पर दो नर्स उपलब्ध हैं, जबकि दुनिया का औसत एक हजार पर तीन नर्स का है। सबसे ज्यादा खराब हालत अस्पताल के बेड्स की है। भारत में एक हजार व्यक्ति पर औसतन एक बेड भी उपलब्ध नहीं है। यह औसत एक हजार पर 0.9 का है। इसमें भी अगर ग्रामीण इलाकों की हालत देखें तो वहां स्थिति और भी खराब है। कुल उपलब्ध बेड्स का महज 30 फीसदी ग्रामीण इलाकों में है। यानी तीन हजार लोगों पर एक बेड उपलब्ध है। इस मामले में दुनिया का औसत भारत से तीन गुने से ज्यादा है।
यही वजह है कि तमाम स्वास्थ्य मानकों पर भारत दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक सभ्य देशों से बहुत पीछे है। शिशु मृत्यु दर, मातृत्व के समय महिलाओं की मृत्यु दर, गंभीर बीमारियों, संक्रामक रोग आदि के रोकथाम में भारत बहुत पीछे है। वैसे पूरी दुनिया में आईसलैंड, नॉर्वे, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग, फिनलैंड और ऑस्ट्रेलिया सबसे ऊपर हैं। मध्य अफ्रीका के देश और दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान सबसे नीचे है। भारत की स्थिति इन देशों से थोड़ी ही बेहतर है। भारत बड़ी तेजी से हर्ट अटैक और मधुमेह की राजधानी बनता जा रहा है। टीबी, कैंसर और किडनी की बीमारियां भी तेजी से बढ़ रही हैं। उस अनुपात में भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का विकास नहीं हो रहा है। भारत का स्वास्थ्य सेक्टर तेजी से निजी हाथों में जा रहा है। सरकार कह रही है कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है लेकिन अब भी स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में 40 फीसदी खर्च लोगों को अपनी जेब से करना होता है।