इस बात में संदेह है कि राहुल गांधी किसी भी राज्य से फर्स्ट हैंड फीडबैक लेते होंगे। पार्टी के प्रभारी महासचिव उनके कान में जो कुछ कहते हैं वे उसी पर यकीन करते हैं, जबकि हकीकत यह है कि कांग्रेस के ज्यादातर महासचिव या प्रभारी जिस राज्य में जाते हैं वहां के कांग्रेस क्षत्रप के गुलाम हो जाते हैं या भाजपा उनको खरीद लेती है। अगर इनमें से कोई नहीं पूछता है तो वे स्वतंत्र रूप से दुकान लगा लेते हैं और टिकट या पार्टी में पद बेचने लगते हैं। हरियाणा में आधा दर्जन सीटों पर इस तरह की गड़बड़ियां सामने आईं। लेकिन कांग्रेस ने सबक नहीं लिया और वहीं गड़बड़ी झारखंड में दोहराई। कश्मीर के गुलाम अहमद मीर को प्रभारी बनाया, जिनकी राजनीतिक समझ ऐसी है कि एक भाषण में कहा कि कांग्रेस की सरकार बनी तो ‘हिंदू, मुस्लिम, आदिवासी सभी घुसपैठियों को सस्ता सिलिंडर दिया जाएगा’। सोचें, भाजपा पूरा चुनाव घुसपैठियों के मुद्दे पर लड़ रही है तो कांग्रेस के प्रभारी ने घुसपैठियों को मदद देने का भरोसा दिया। सबको पता है कि झारखंड में एक भी मुस्लिम वोट कांग्रेस, जेएमएम, राजद के अलावा किसी को नहीं जाएगा फिर भी कांग्रेस ने तारिक अनवर और गुलाम अहमद मीर को चुनाव लड़ाने भेजा! इतना ही नहीं किसी समझदार व्यक्ति ने चुनाव से तीन महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बदलवा दिया।
ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस का संगठन भगवान भरोसे है। कांग्रेस ने ओडिशा में पूरा संगठन भंग कर दिया और उसके बाद हिमाचल प्रदेश में भी पूरा संगठन भंग कर दिया। सवाल है कि संगठन भंग करने से पहले नया संगठन क्यों नहीं तैयार किया गया था? अभी ये दोनों राज्य बिना कांग्रेस संगठन के हैं। कोई भी गंभीर राजनीति करने वाली पार्टी इस तरह के काम नहीं कर सकती है। प्रदेश का संगठन बना देना कौन सा बड़ा काम है वह भी ओडिशा जैसे राज्य में, जहां कांग्रेस बिल्कुल हाशिए की पार्टी है और 2029 से पहले कोई चुनाव भी नहीं होना है? अनेक राज्यों में कांग्रेस का तदर्थ संगठन है। ज्यादातर प्रदेशों में ऐसे नेता बैठाए गए हैं, जिनकी हैसियत नहीं है प्रादेशिक क्षत्रप से बात कर सकें। सब उसकी कृपा पर राजनीति कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में एकाध अपवाद छोड़ दें तो कांग्रेस उन्हीं राज्यों में जीती, जहां प्रादेशिक क्षत्रप मजबूत हैं।
कर्नाटक चुनाव के बाद मुसलमानों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव बना है लेकिन सिर्फ उनका वोट कांग्रेस की जीत सुनिश्चित नहीं कर सकता है। तभी जहां भी कांग्रेस अकेले लड़ी वहां उसका प्रदर्शन औसत रहा या खराब रहा। कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्य में भी कांग्रेस मजबूती से भाजपा को टक्कर नहीं दे सकी। उसे अपनी ज्यादातर सीटें महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मिली, जहां प्रादेशिक पार्टियों के साथ उसका गठबंधन था। भाजपा के साथ सीधे मुकाबले वाले राज्यों में वह सिर्फ राजस्थान व हरियाणा में अच्छा प्रदर्शन कर पाई। बाकी गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में एक भी सीट नहीं जीत पाई। लेकिन चुनाव के बाद छह महीने में राहुल गांधी एक बार भी इन राज्यों में नहीं गए हैं।
जब इन राज्यों में चुनाव होंगे तभी उनके चरण में इन राज्यों में पड़ेंगे। वे सोशल मीडिया में जरूर भाजपा से मजबूती से लड़ रहे हैं। लेकिन उसका कोई असर जमीनी राजनीति पर नहीं है। अगर राहुल गांधी कांग्रेस संगठन को मजबूत नहीं करेंगे, जमीन पर नहीं उतरेंगे, 24 घंटे राजनीति नहीं करेंगे, प्रदेशों के नियमित दौरे नहीं करेंगे, महासचिवों पर निर्भरता कम नहीं करेंगे, महासचिवों को जवाबदेह नहीं बनाएंगे तब तक कोई प्रादेशिक पार्टी भी कांग्रेस को गंभीरता से नहीं लेगी। भाजपा के साथ वैचारिक लड़ाई बाद में होगी पहले संगठन के स्तर पर उसको चुनौती देनी होगी या संगठन को कम से कम इस लायक बनाना होगा कि वह जमीनी स्तर पर भाजपा के मुकाबले खड़ी हो सके।