पता नहीं इन दिनों सोनिया गांधी की सेहत और उनकी समर्थता कितनी है। लगता है कि वे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अपनी समझ और राय भी नहीं देती है। मेरे लिए पहेली है कि सोनिया गांधी ने अपनी कमान और अहमद पटेल की मैनेजरी के अनुभवों में नरेंद्र मोदी को भावना तथा जमीनी राजनीति से उभरते देखा है। बावजूद इसके वे कैसे मान रही हैं कि राहुल गांधी अकेले या कांग्रेस के क्षत्रप अपने बूते मोदी-शाह को हरा देंगे? यह भी वे फील कर सकती हैं, फीडबैक और समझ से जानती होंगी कि वेणुगोपाल, जयराम रमेश की राहुल की कथित टीम कांग्रेस को कैसे चला रही है? क्षत्रप कैसे पदाधिकारियों को मैनेज करते हैं?
प्रियंका और राहुल के घर-दफ्तर के सहयोगियों की कैसी दादागीरी है? वे क्या-क्या करते हैं? और मोदी, सरकार, आईबी आदि से कैसी निगरानी, कांग्रेस पदाधिकारियों, क्षत्रपों, नेताओं को हैंडल करते हुए होंगे, इस सबका उन्हें अहसास होगा। इसलिए क्योंकि कांग्रेस की सरकारें भी विपक्षी पार्टियों, नेताओं आदि की गतिविधियों और उनकी अंदरूनी राजनीति में दखल रखती थीं। आईबी का राजनीतिक निगरानी, नजर का भी काम है। चिदंबरम के भाजपाई मुंहलगों ने 2014 से पहले नरेंद्र मोदी का रास्ता क्लियर कराने के लिए नितिन गडकरी के यहां जब इनकम टैक्स के छापे पड़वाए, उनकी अध्यक्षता छुड़वाई तो क्या वह जानकारों से छुपी बात थी?
उस नाते सोनिया गांधी को पहले तो राहुल गांधी को यही समझाना चाहिए कि राजनीति ‘टच एंड गो’ नहीं है। नरेंद्र मोदी के आगे दिन में चौबीस घंटे, सप्ताह में सातों दिन राजनीति करना जरूरी है। भला यह कैसे कि उमर अब्दुला शिकायत करें तब राहुल, प्रियंका जम्मू में सभाएं शुरू करें या सैलजा के कोपभवन में बैठने के आठ-दस दिन बाद राहुल गांधी उन्हें समझाएं!
मेरा मानना है और जम्मू में पुराने सुधी पत्रकार मनु वत्स ने ‘नया इंडिया’ में उम्मीदवारों के खराब टिकट तय होने के बाद लिखा था कि कांग्रेस को हराने की कांग्रेसी नेताओं ने ही सुपारी खाई दिखती है तो नामुमकिन नहीं है कि अमित शाह-राम माधव के मैनेजमेंट में प्रदेश कांग्रेस नेताओं को मैनेज करके कांग्रेस की उम्मीदवार लिस्ट कमजोर बनवाई हो! यों भी हिंदुओं की राजनीति में बिकाऊ माल सर्वत्र है। ऊपर से कांग्रेसियों को कुल मिला कर आज मुख्यालय के सर्वेयरों, वेणुगोपाल हैंडल कर रहे हैं तो सोचे, कितनी लेयर पर बिकाऊ कांग्रेसी मोदी-शाह के प्यादे होंगे?
सोनिया गांधी के समय ऐसी बेईमानी नहीं थी। पारिवारिक वफादारी में संगठन महासचिव ऑस्कर फर्नाडीज, ऑब्जर्वर, प्रदेश अध्यक्ष, मुख्यमंत्री सबकी अलग-अलग उम्मीदवार लिस्ट के चेक बैलेंस से आला बैठक में एक-एक नाम पर विचार होता था।
इतना गोलमाल नहीं था जो चर्चा चल पड़े कि हुड्डाजी के 72 वफादारों को टिकट मिला। एआईसीसी चुनाव लड़ाती थी। दसियों गड़बड़ियों के बावजूद अहमद पटेल आखिर तक सीटवार मॉनिटर, फीडबैक लेने का वॉररूम चलाए होते थे। क्या हरियाणा के चुनाव की राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे के दफ्तर ने मॉनिटरिंग की होगी?
सोचें, राहुल गांधी ने आप के साथ समझौते की बात की तो सिरे क्यों नहीं चढ़ी? इसलिए क्योंकि हुड्डा, वेणुगोपाल ने आप पार्टी से बात शुरू कर प्रियंका और राहुल के यहां कान भरे होंगे कि आप वाले बढ़चढ़ कर (गलत नहीं) सीटें मांग रहे हैं और कांग्रेस को व्यर्थ नुकसान होगा! मेरे पर सब छोड़े रखो।
और क्या हुआ? कांग्रेस ने कितने तो खराब, कितने बागी और कितनी बिरादरियों के वोटों का नुकसान किया इसका सीटवार विश्लेषण ‘नया इंडिया’ के राजरंग में हुआ है तो सारे डाटा सभी के पास हैं। क्या सोनिया गांधी के पास नहीं होंगे?