मैं इन दिनों ‘जनसत्ता’, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय के अपने संस्मरण खंगालता हुआ हूं। और वह सच्चाई उभरती है कि कैसे मुसलमान ने गांधी-नेहरू परिवार की लुटिया डुबोई। वामपंथियों और अहमद पटेल ने हिंदुओं में तुष्टीकरण की कीर्तिं बनवाई। कोई न माने इस बात को लेकिन तथ्य है कि 1971 में बांग्लादेश के निर्माण से भारत का मुसलमान इंदिरा गांधी से छिटका था। संजय गांधी की जनसंख्या नियंत्रण धुन को मुस्लिम समुदाय ने अपने खिलाफ माना। आपातकाल में दिल्ली के तुर्कमान गेट, जामा मस्जिद क्षेत्र की साफ-सफाई तथा नसबंदी अभियान से उत्तर भारत का मुसलमान चिढ़ गया था। ज्योंहि इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनाव का ऐलान किया तो जामा मस्जिद के अब्दुल्ला बुख़ारी सहित उत्तर भारत के मौलानाओं ने फतवेबाजी की। इंदिरा गांधी को हराने के लिए विपक्षी पार्टियों के मंच जनता पार्टी को थोक मुस्लिम वोट मिले। मोरारजी सरकार की शपथ के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में जनसभा हुई तो अब्दुल्ला बुख़ारी की सबसे लंबी तकरीर हुई। जनसभाओं का वह सिलसिला बना कि यदि भाषण के दौरान मस्जिद से नमाज सुनाई दे तो सभा रूक जाए।
सत्य है इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी आदि की मुस्लिम वोट पटाने की सभी कोशिशें फेल थीं। अब्दुल्ला बुख़ारी और सैयद शहाबुद्दीन नए मुस्लिम नेता हुए। शहाबुद्दीन को जनता पार्टी ने राज्यसभा भेजा। हेमवंती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम मुसलमानों के चहेते नेता थे। उनके बाद फिर वीपी सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव जैसे वे नेता हुए, जिन्होंने मुस्लिम वोटों के बूते सत्ता भोगी तो दूसरी तरफ संघ परिवार की कमडंल राजनीति खिलने के अकल्पनीय मौके दिए।
इस सबमें तब नेहरू-गांधी परिवार ने क्या किया? इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राहुल गांधी, अरूण नेहरू ने हिंदुओं को पटाने के लिए वह किया, जिससे उलटे भाजपा और संघ बढ़े! 1981 के बाद इंदिरा गांधी और संजय गांधी धर्म-आस्था के अपनी तह पैंतरे चलते हुए थे। इंदिरा गांधी की धर्म आस्था सार्वजनिक थी। हिंदुओं को धीरेंद्र ब्रहमचारी, संतों-बाबाओं की अहमियत मीडिया से मालूम होती थी। फिर वीपी सिंह की मंडल राजनीति के जवाब में संघ-आडवाणी का कमंडल पैंतरे और नेहरू राज में अयोध्या में कांग्रेसी मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत की करतूत से लटके बाबरी मस्जिद के मामले ने तूल पकड़ा। शिया मसजिद सुन्नी मुसलमानों की लड़ाई हो गई। राजीव गांधी, अरूण नेहरू तब गुपचुप संघ-भाजपा के भाऊराव देवरस से ले कर वाजपेयी-आडवाणी-जेटली से संपर्क-संबंध बनाते हुए थे।
और राजीव गांधी की दूरदर्शन हिंदू आस्था बनवाने के भव्य प्रोजेक्ट बनाने लगा। दूरदर्शन पर ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तथा प्राचीन भारत की स्वर्णिम कथाएं लाइव हुई। याद करें राजीव गांधी के साढ़े चार वर्षों के दूरदर्शन प्रोग्रामों को। रविवार सुबह ‘रामायण’ के प्रसारण से सड़कें सूनी हो जाती थीं। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके सूचना मंत्रियों ने दूरदर्शन पर पहले रामानंद सागर की ‘रामायण’ और फिर बीआर चोपड़ा तथा डॉ. राही मासूम रजा की ‘महाभारत’ का सप्ताह-दर-सप्ताह वह प्रसारण बनाया, जिसका हिंदुओं के मनोविज्ञान पर जादुई असर हुआ। वह इतना विशाल और गहरा (‘भारत एक खोज’ तथा ‘चाणक्य’ आदि का सिलसिला भी) था मानो मौन क्रांति। राजीव गांधी, अरूण नेहरू, वीर बहादुर सिंह आदि के अयोध्या में बाबरी मस्जिद खुलवाने के भंवर की अलग दास्तां है। कुल मोटी बात है कि इंदिरा-राजीव गांधी के शासन में सूचना प्रसारण मंत्री वीएन गाडगिल, अजित पांजा, एचकेएल भगत और इनके सचिवों (एसएस गिल और भास्कर घोष) ने वह किया, जिससे घर-घर भगवा रंग, भगवा राजनीति अपने आप पैठ बनाती हुई थी।
मुझे याद है मैंने तब, उस दौर में लिखा था कि भाजपा के पालनपुर अधिवेशन के प्रस्ताव तथा अशोक सिंघल द्वारा विश्व हिंदू परिषद् से चैत्र की रामनवमी पर भी दिल्ली को भगवा झंडियों में सजवाना, आडवाणी के रथ का दिल्ली में पड़ाव भविष्य की दिशा का दो टूक संदेश है।
इसलिए न तो 66 करोड़ श्रद्धालुओं का कुंभ स्नान चमत्कार है और न आधुनिक युग के मैनेजमेंट प्रोफेशनल्स को इस बारे में जानने-सीखने की जरूरत है। रामायण, महाभारत और आस्था के हिंदू मनोभाव से कभी गांधी भी हिंदुओं के ‘महात्मा’, राष्ट्र के पिता हुए थे। वे रामराज्य लिवाते हुए थे तो अब हम हिंदू ‘विकसित भारत’ तथा ‘मोक्ष’ पाते हुए हैं। और यह हम सनातन धर्मावलंबियों की शाश्वत नियति है!