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01-03-2025 Vol 19

बिहार का सिरदर्द बड़ा

इसको सिर मुंडाते ही ओले पड़ना कहते हैं। केंद्र में नरेंद्र मोदी को पहली बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना पड़ा और शपथ लेने के 11 दिन के बाद ही बिहार में आरक्षण कानून को लेकर फच्चर पड़ गया  है। हाई कोर्ट ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने के बिहार सरकार के कानून को निरस्त कर दिया। यह कानून नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन की सरकार ने पास कराया था। तब भाजपा विपक्ष में थी लेकिन उसने इसका समर्थन किया था। बाद में विधानमंडल से पास इस कानून को राज्यपाल ने भी आनन फानन में मंजूरी दे दी थी। लेकिन अब वह कानून निरस्त हो गया है और इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग शुरू हो गई है। अगर शामिल किया तो पूरे देश में पंडोरा बॉक्स खुलेगा और अगर नहीं शामिल किया तो तीन संकट हैं। पहला, नीतीश के साथ छोड़ने की संभावना बढ़ जाएगी। दूसरा, आरक्षण खत्म करने का जो आरोप लोकसभा चुनाव के समय लग रहा था उसे विपक्ष इस फैसले से जोड़ कर मुद्दा बनाएगा। तीसरा संकट यह है कि भाजपा अकेले कैसे चुनाव लड़ेगी

बिहार विधानसभा चुनाव में तो नीतीश के बगैर भाजपा की नाव नहीं पार लगने वाली है। आरक्षण का विवाद नहीं  सुलझा तो बाकी दोनों सहयोगियों यानी उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी को समझाना भी मुश्किल होगा। कुशवाहा तो पहले से ही नाराज हैं क्योंकि उनको लग रहा है कि भाजपा के लोगों की साजिश की वजह से वे चुनाव हारे। 

पटना हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच ने आरक्षण कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज किया है तो दूसरी ओर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार दो लाख नौकरियों की वैकेंसी निकालने वाली है। अगर यह कानून लागू नहीं होता है तो उसमें बढ़े हुए आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाएगा। मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने इसे मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। उसके नेताओं ने कहा कि नीतीश और भाजपा की मंशा कभी भी पिछड़ी जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का इरादा नहीं था। उनका कहना है कि अगर इनकी मंशा ठीक होती तो पहले ही इस कानून को नौवीं अनुसूची डाल दिया गया होता ताकि यह न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हो जाए। ध्यान रहे तमिलनाडु में आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 69 फीसदी करने के कानून को 1992 में तब की नरसिंह राव सरकार ने नौवीं अनुसूची में डाल दिया था। सो, वहां वह कानून लागू है लेकिन बिहार में निरस्त हो गया। 

मोदी सरकार की मुश्किल यह है कि अगर बिहार के कानून को नौवीं अनुसूची में डालते हैं तो आरक्षण बढ़ाने का पंडोरा बॉक्स खुल जाएगा। झारखंड सरकार ने भी आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 77 फीसदी की है और छत्तीसगढ़ सरकार ने आरक्षण की सीमा 76 फीसदी कर दी है। झारखंड में तो पांच महीने में चुनाव होने वाले हैं। वहां भी सत्तारूढ़ गठबंधन आरक्षण की सीमा बढ़ाने के कानून को राज्यपाल से मंजूरी दिलाने और उसे नौवीं अनुसूची में शामिल करने का दबाव बनाएगा। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार भी इस तरह की पहल कर सकती है। इसके अलावा पार्टी के अंदर और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सामने भी इस फैसले का बचाव मुश्किल होगा। 

अगर केंद्र सरकार आरक्षण कानून को नौवीं अनुसूची में नहीं डालेगी या इस पर सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नही मिलेगी तो नीतीश का भाजपा के साथ बने रहना उनके लिए आत्मघाती हो जाएगा। बिहार में पहले से भी लोग नीतीश कुमार की निष्ठा को लेकर सवाल उठ रहे थे। लेकिन आरक्षण कानून रद्द होने के बाद हालात और बिगड़ गए हैं।

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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