भारतीय परंपरा में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है, जिनका ज्ञान प्रत्येक सुसंस्कृत नागरिक के लिए अनिवार्य समझा जाता है। प्रबंधकोश में 72 कलाओं की सूची तथा ललितविस्तर में 86 कलाओं के नाम अंकित हैं। कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ कलाविलास में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सम्बन्धी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं सम्बन्धी, 10 भेषज, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं का वर्णन है।
15 अप्रैल को विश्व कला दिवस
शारीरिक व मानसिक कौशलों का प्रयोग कर किए गए मानवीय कृत्रिम निर्माण कार्य को कला की संज्ञा दी गई है। कला का अर्थ है- रचना करना। कला कृत्रिम है। मनुष्य के द्वारा किए गए कार्य में ही कला है। कला में कौशल का प्राधान्य है। भारतीय परम्परानुसार कला उन समस्त क्रियाओं को कहते हैं, जिनमें कौशल अपेक्षित हो। आत्म अभिव्यक्ति की कौशलपूर्ण शक्ति ही कला है। मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है। कला शब्द की उत्पत्ति कल् धातु में अच् तथा टापू प्रत्यय लगाने से हुई है- कल्+अच्+टापू। अर्थात -शोभा, अलंकरण, किसी वस्तु का छोटा अंश या चन्द्रमा का सोलहवां अंश आदि।
जीवन ऊर्जा का महासागर है। मानवीय अंतश्चेतना के जागृत होने पर उत्पन्न होने वाली ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इससे बुद्धि व आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है। कला उस क्षितिज की भाँति है, जिसका कोई ओर- छोर नहीं। यह अत्यंत विशाल व विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे है। कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है।
कला सत्य की अनुकृति है। एक कलाकार अपनी भावों को क्रिया रेखा, रंग, ध्वनि अथवा शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करता है कि उसे देखने अथवा सुनने में भी वही भाव उत्पन्न हो जाए, कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्तर्मन मानो मूर्त ले उठता है। इसके मूर्त होते ही चाहे शब्दों की आराधना करने वाला लेखक हो या रंगों की भीगी तूलिका से खेलने वाला चित्रकार या सुरों की पुकार से भावों को अभिव्यक्ति देने वाला गायक या फिर वाद्यों की झंकार से झूमाने वाला वादक सभी हृदय से गदगद हो जाते हैं, आत्मिक शांति से विभोर हो जाते हैं।
कला आत्मिक शान्ति का माध्यम है। कला कठिन तपस्या है, साधना है। इसके माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार रूप देता है। कला की शक्ति लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा देती है, जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उद्दात्त बनाती है। और स्व से निकालकर वसुधैव कुटुम्बकम् से जोड़ती है। कला में मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है।
मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास आदि अनेकानेक तत्त्वों से भरपूर कला में मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना चमत्कार तत्क्षण दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की भांति मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है। यही कारण है कि कला के महत्व को पहचानने, कला की अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करने और कला के माध्यम से समाज में रचनात्मकता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 15 अप्रैल को विश्व कला दिवस मनाया जाता है।15 अप्रैल 1452 को महान कलाकार लिओनार्दो द विंची का जन्म हुआ था, जो न केवल एक महान कलाकार थे बल्कि वैज्ञानिक, गणितज्ञ और आविष्कारक भी थे।
विंची को बहुआयामी प्रतिभा और रचनात्मकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसलिए यह दिन विश्व कला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारतीय परंपरा में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है, जिनका ज्ञान प्रत्येक सुसंस्कृत नागरिक के लिए अनिवार्य समझा जाता है। प्रबंधकोश में 72 कलाओं की सूची तथा ललितविस्तर में 86 कलाओं के नाम अंकित हैं। कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ कलाविलास में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सम्बन्धी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं सम्बन्धी, 10 भेषज, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं का वर्णन है। सर्वाधिक प्रामाणिक सूची कामसूत्र की है।
भरत के नाट्यशास्त्र, वात्स्यायन के कामसूत्र, उशनस् के शुक्रनीति, जैन ग्रंथ प्रबंधकोश, कलाविलास, ललितविस्तर आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में कला का वृहत वर्णन प्राप्य है।
कला मानवीय संस्कृति में एक मूल्यवान विरासत है। भारत में वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला का प्राचीन काल से प्रचलन रहा है। भारतीय कला धर्म से प्रेरित हुई है। कलाकारों और हस्तशिल्पियों ने धर्माचार्यों के निर्देशानुसार काम किया। कुछ ने स्वयं को अभिव्यक्त करते समय संसार को जैसा देखा, वैसा ही अभिव्यक्त किया। भारतीय कला में शुभ, पावन दृष्टि को ही अभिव्यक्त किया गया है। भौतिक संसार के पीछे छिपे दैव तत्वों से, जीवन और प्रकृति की सनातन विषमता और मानवीय तत्व को अवगत कराया गया है।
भारतीय कला अपनी प्राचीनता तथा विवधता के लिए विख्यात रही है। प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस कला को अपने जीवन का एक अंश मानकर चला है। वह कला का विकास और निर्माण नहीं करता, बल्कि कला को जीता है। उसकी जीवन शैली और जीवन का हर कार्य कला से परिपूर्ण है। उसके जीवन का प्रत्येक पहलू कला से परिपूर्ण है। जीवन के दैनिक क्रिया-कलापों के बीच उसके पूजा-पाठ, उत्सव, पर्व-त्योहार, शादी-विवाह या अन्य घटनाओं से विविध कलाओं का घनिष्ट सम्बन्ध है।
कला मानव मस्तिष्क एवं आत्मा की उच्चतम एवं प्रखरतम कल्पना व भावों की अभिव्यक्ति है, इसीलिए कलायुक्त वस्तु बरबस ही संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। वह उन्हें प्रसन्नचित्त एवं आहलादित भी कर देती है। व्यक्ति की आत्मा को झंझोड़ देती हैं। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से दीपक प्रज्जवलित हो जाने तथा पशु-पक्षी के अपनी सुध-बुध खो बैठने की कथाएं इसके साक्षात प्रमाण हैं। संगीत मानवीय लय एवं तालबद्ध अभिव्यक्ति है। भारतीय संगीत अपनी मधुरता, लयबद्धता तथा विविधता के लिए प्रसिद्ध है।
वर्तमान भारतीय संगीत आदि सृष्टि के प्रारम्भिक काल से ही सम्बद्ध है। बैदिक काल में ही भारतीय संगीत के बीज पड़ चुके थे। सामवेद उन वैदिक ॠचाओं का संग्रह मात्र है, जो गेय हैं। प्राचीन काल से ही ईश्वर आराधना हेतु सूक्तों, मंत्रों व भजनों के प्रयोग की परंपरा रही है।
भारतीय संगीत और लोक कला की सांस्कृतिक विरासत
प्राचीन काल में यज्ञादि के अवसर पर भी समूहगान होते थे। भारतीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। वेदों का मूल मंत्र है – ॐ (ओऽम्) । (ओऽम्) शब्द में तीन अक्षर अ, उ तथा म् सम्मिलित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात सृष्टिकर्ता, विष्णु अर्थात जगत् पालक और महेश अर्थात संहारक की शक्तियों के द्योतक हैं। ये तीनों अक्षर ॠग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद से लिए गए हैं। संगीत के सात स्वर षड़ज (सा), ॠषभ (र), गांधार (गा) आदि वास्तव में ऊँ (ओऽम्) या ओंकार के ही अन्तविर्भाग हैं। स्वर तथा शब्द की उत्पत्ति भी ऊँ के गर्भ से ही हुई है।
मुख से उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार ऊँ को ही संगीत का जगत माना जाता है। ॐ की साधना में समर्थ व्यक्ति ही संगीत को यथार्थ रूप में ग्रहण कर सकता है। ऊँ अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की आवाज़ है। यही कारण है कि संगीत की उत्पत्ति हृदयगत भावों में ही मानी जाती है।
वर्तमान में भी भारतीय कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परंपरागत प्रभावशीलता को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं। समस्त देश में प्रशस्त इसके राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की अपनी विशेष सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान है, जो वहाँ प्रचलित कला के भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है, जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। परंपरागत कला का एक अन्य रूप अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
भारत की लोक और जनजातीय कलाएँ बहुत ही पारंपरिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है।
भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्र कलाएँ- बिहार की मधुबनी चित्रकारी, उड़ीसा राज्य की पाताचित्र, आंध्र प्रदेश की निर्मल चित्रकारी आदि लोक कला के अनन्य रूप हैं। चित्रकारी के अलावा मिट्टी के बर्तन, गृह सज्जा, जेवर, कपड़ा डिज़ायन आदि भी इसके उच्चतम रूप हैं। भारत के कुछ प्रदेशों में बने मिट्टी के बर्तन तो अपने विशिष्ट और परंपरागत सौंदर्य के कारण विदेशी पर्यटकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हैं।
भारत के आंचलिक नृत्य- झारखण्ड की झूमर, छऊ, कली नाच, पंजाब का भांगड़ा, गुजरात का डांडिया, असम का बिहू नृत्य आदि उन प्रदेशों की सांस्कृतिक विरासत को अभिव्यक्त करते हैं। इन लोक नृत्यों के माध्यम से लोग ऋतु का स्वागत, बच्चे का जन्म, शादी, त्योहार आदि हर मौके पर अपना उल्लास व्यक्त करते हैं। भारत सरकार और संस्थाओं ने कला के उन रूपों को बढ़ावा देने का हर संभाव प्रयास किया है, जो भारत की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। भित्ति चित्र, कबीला नृत्य, कबीला संगीत आदि विभिन्न रूपों में जनजातीय कला के अनेक रूप हैं।
Pic Credit: ANI
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