भोपाल। समूचे देश में इन दिनों “आर्थिक सीजन” चल रहा है, केन्द्र के साथ ही सभी राज्य सरकारें अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर चिंताग्रस्त है और इस संकट से निजात के रास्ते खोज रही है, हर साल बजट में दिन-दूनी-रात-चौगुनी वृद्धि हो रही है। किंतु इसकी चिंता सरकार में विराजित राजनेताओं को नही बल्कि भारतवासियों को अधिक हो रही है, गंभीर आर्थिक संकट के बावजूद न राजनेताओं की मौजमस्ती में कमी दृष्टिगोचर हो रही है और न ही शासकीय वर्ग में, चिंताग्रस्त है तो सिर्फ देश-प्रदेश का आर्थिक बोझ सहन करने वाली बैचारी जनता, पर किया क्या जाए? हमारी प्रजातांत्रिक परम्परा ही ऐसी है आज देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति इस चरम पर पहुंच गई है कि जितना राज्य सरकार का कुल बजट है, तो उसी के बराबर उतना ही कर्ज भी है। अब ऐसी स्थिति में मूल प्रश्न यह है कि सरकार अपने खर्च पर ध्यान दे या जनता की सुविधाओं पर?
….यहां एक बात और मैं स्वयं पिछले पांच दशक से अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूं, किंतु मुझे आज तह यह समझ में नही आया कि केन्द्र या राज्य सरकार की बजट को घाटे में ही प्रस्तुत करने की यह परम्परा किसने डाली? और सरकारों का बजट हमेशा घाटे का ही होना चाहिए, यह नियम किसने बनाया? क्या बजट की वस्तुस्थिति प्रस्तुत करने की परम्परा खत्म कर दी गई? बजट घाटे का ही होना क्यों जरूरी है? यह मैं आज तक समझ नही पाया? लेकिन परम्परा है, वह चली आ रही है और सब उसका ईमानदारी से पालन भी कर रहे है, और बजट का यह घाटा ही जनता के आर्थिक शोषण का मुख्य आधार होता है, फिर चाहे सरकार किसी की भी क्यों न हो?
आज यदि हम देश को छोड़ अपने राज्य की ही आर्थिक स्थिति की चिंता करें, तो आज की स्थिति में हमारी राज्य सरकार को हर दिन एक हजार करोड़ का कर्ज लेना पड़ रहा है, अब राज्य के बजट प्रस्तुति- करण के मात्र छः दिन बाद ही राज्य सरकार छः हजार करोड़ का नया कर्ज लेने जा रही है, इस चालू वित्तीय वर्ष के दौरान ही अब तक चार बार कर्ज ले चुकी है, एक जनवरी को पांच हजार करोड़, बीस फरवरी को चार हजार करोड़, पांच मार्च को छः हजार करोड और बारह मार्च को फिर चार हजार करोड़। इस प्रकार पिछले तीन महीनों में राज्य सरकार कुल मिलाकर बीस हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है। यह कर्ज अगले 24 वर्षों में चुकाना होगा और इसकी ब्याज राशि मूल राशि से भी कई गुना ज्यादा होगी।
वैसे यदि कर्ज की दृष्टि से पूरे देश में पांच राज्यों को देखा जाए तो मध्यप्रदेश पांचवें क्रम पर है, पहले स्थान पर महाराष्ट्र है, जिस पर साढ़े नौ लाख करोड़ का कर्ज है, दूसरे क्रम पर राजस्थान है, जिस पर सात लाख छब्बीस हजार करोड़ का कर्ज है, तीसरें क्रम पर उत्तरप्रदेश- सात लाख सात हजार करोड़, चौथे क्रम पर पश्चिम बंगाल- सात लाख छः हजार करोड़ और पांचवें क्रम पर अपना मध्यप्रदेश जिस पर चार लाख इक्कीस हजार करोड़ का कर्ज है। कुल मिलाकर यह कर्ज का आंकड़ा सत्तावन हजार करोड तक पहुंच गया है। इस प्रकार प्रदेश का हर नागरिक हजारों के कर्ज में डूबा हुआ है। लेकिन इसकी चिंता किसे? हमारे सत्तारूढ़ राजनेता तो अपनी उसी परम्परागत मौज-मस्ती में डूबे हुए है और प्रदेश का प्रशासनिक वर्ग अपनी तनख्वाह बढ़ाने के कोई अवसर नही चूकता है और चूंकि कर्ज लेने वाले सत्तासीनों की जेब से कर्ज की राशि अदा होनी नही है। इसलिए इस बात की भी किसी को कोई चिंता नही है, चिंतित सिर्फ आम जनता है, जिसके टेक्स में बढ़ौत्तरी कर यह कर्ज चुकाना है। एक ओर बढ़ती मंहगाई का दौर, दूसरी ओर कर्ज चुकाने के लिए टेक्स में बढ़ौत्तरी ऐसी स्थिति में बैचारी आम जनता करें तो क्या? ….पर इसकी चिंता पांच साल में एक बार वोट के लिए भिखारी की मुद्रा में आने वाले राजनेताओं को बिल्कुल भी नही है, उन्हें आम लोगों की परेशानी से क्या मतलब, उनका तो बस एक ही नारा- ‘‘कर्ज लो घी पियो’’।