हिंदू धर्मस्थलों को मुक्ति की आवश्यकता है। इन्हें सरकारी नियंत्रण से मुक्ति की आवश्यकता है तो न्यायपालिका के समय समय पर होने वाले हस्तक्षेप और मीडिया की सतत निगरानी से भी मुक्ति की आवश्यकता है। तिरुपति प्रसादम् विवाद ने इस आवश्यकता को अनिवार्य कर दिया है। आंध्र प्रदेश की तिरुमाला की सात पहाड़ियों पर स्थित श्री भगवान वेंकटेश्वर मंदिर यानी तिरुपति मंदिर के लड्डू प्रसादम् में मिलावट का जो मामला सामने आया है वह भयावह और बेहद चिंताजनक है। यह करोड़ों हिंदुओं की आस्था को छिन्न भिन्न करने वाला है। इस विवाद से हिंदू मंदिरों और तमाम धर्मस्थलों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की आवश्यकता प्रमाणित हुई है। यह सही है कि राज्य के मुख्यमंत्री श्री चंद्रबाबू नायडू ने संकेत दिया है कि अब तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् यानी टीटीडी बोर्ड का अध्यक्ष हिंदू ही बनेगा लेकिन यह बड़ा सवाल है कि यह सरकार क्यों तय करेगी कि कौन अध्यक्ष बनेगा? यह काम सरकार के हाथ में क्यों होना चाहिए? क्या दूसरे धर्मों के धर्मस्थलों का प्रबंधन सरकार के हाथों में है? और अगर नहीं है तो क्या हिंदू धर्मस्थलों को सरकारी नियंत्रण में रखना संविधान के अनुच्छेद 14 से मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है?
ये सवाल इसलिए हैं क्योंकि जगन मोहन रेड्डी और उनके स्वर्गीय पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी की सरकारों में तिरुपति के मंदिर के बोर्ड में गैर हिंदू अध्यक्ष बनाए जाने की खबरें आई थीं। इनकी सरकारों में एक ऐसे व्यक्ति को टीटीडी बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया था, जिसने भगवान वेंकटेश्वर की प्रतिमा को काला पत्थर बता कर उसे अपमानित करने की बात कही थी। ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति को भी बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया गया था, जिनकी पुत्री ने ईसाई रीति रिवाज से अपनी शादी का वीडियो सार्वजनिक किया था। क्या किसी दूसरे धर्म या पंथ के धार्मिक स्थल का नियंत्रण ऐसे व्यक्ति के हाथ में दिया जा सकता है, जो उस धर्म में और उसकी मान्यताओं में आस्था नहीं रखता हो? जब इस्लाम या ईसाई धर्म के धर्मस्थलों के मामले में ऐसा नहीं होता है तो हिंदू धर्मस्थलों के मामले में भी ऐसा नहीं होना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 25 में सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। इसी अनुच्छेद के आधार पर धार्मिक संस्था बनाने और आस्था के प्रचार का अधिकार भी मिला हुआ है और इसी अनुच्छेद के जरिए धार्मिक संस्थाओं को प्रशासित या प्रबंधित करने का अधिकार भी सभी धर्मों को मानने वालों को मिला है। तभी सवाल है कि कोई भी सरकार इस अनुच्छेद के अनुपालन में भेदभाव कैसे कर सकती है? अगर इस अनुच्छेद के अनुपालन में भेदभाव होता है तो वह संविधान के अनुच्छेद 14 से मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इसी आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. सुब्रमणियन स्वामी ने अलग अलग अदालतों में कई याचिकाएं दायर की हैं। उन्होंने उत्तराखंड में चार धाम देवस्थानम प्रबंधन का गठन करके चार धाम और 51 अन्य धार्मिक स्थलों का अधिग्रहण करने के सरकार के फैसले को चुनौती दी है। उन्होंने महाराष्ट्र में भी विट्ठल रुक्मिणी मंदिर के प्रबंधन को लेकर भी हाई कोर्ट में याचिका दी है।
हिंदू धर्मस्थलों का नियंत्रण सरकारों के हाथ में होने या उनके प्रबंधन में सरकार के हस्तक्षेप से कई और विसंगतियां पैदा हो रही हैं, जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। संविधान हर व्यक्ति को अपनी धार्मिक आस्था को बिना डरे प्रकट करने और उसका प्रचार करने की अनुमति देता है। इसका लाभ उन धर्मों को होता है, जिनके धार्मिक संस्थान सरकारी नियंत्रण में नहीं हैं और जिनको मिलने वाले चंदे और दान का सारा नियंत्रण उस धर्म को मानने वाले निजी लोगों के हाथ में है। वे इसका उपयोग अपने धर्म के प्रचार, प्रसार में करते हैं। चर्च और मस्जिदों में मिलने वाले दान का इस्तेमाल ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रचार में किया जाता है। लेकिन क्या हिंदू मंदिरों में मिलने वाले चंदे या दान का इस्तेमाल हिंदू धर्म के प्रचार, प्रसार में किया जाता है? वास्तविकता यह है कि मंदिरों में मिलने वाले चंदे और दान के एक हिस्से का इस्तेमाल तो मंदिर के प्रबंधन और प्रशासन के संचालन में होता है लेकिन धर्म के प्रचार में इसका इस्तेमाल नहीं किया जाता है। यहां तक कि धार्मिक मान्यताओं और करोड़ों लोगों की आस्था की रक्षा के लिए भी इसका उपयोग नहीं किया जाता है। अगर इसका उपयोग उचित तरीके से किया जाता तो क्या तिरुपति के मंदिर की अपनी एक प्रयोगशाला नहीं होती, जिसमें पूजा सामग्री और प्रसादम् में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता नियमित रूप से जांची जाती? तिरुपति के मंदिर में हर साल औसतन 12 सौ करोड़ रुपए का चढ़ावा चढ़ता है। मंदिर के हजारों करोड़ रुपए बैंकों में जमा हैं। लेकिन मंदिर प्रबंधन के पास एक छोटी प्रयोगशाला नहीं है, जिसमें मंदिर में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता जांची जा सके! यह कितने आश्चर्य की बात है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि मंदिर प्रबंधन का करोड़ों हिंदुओं की आस्था और धार्मिक मान्यताओं से कोई सरोकार नहीं है। उनके लिए मंदिर का प्रबंधन वैसे ही है, जैसे किसी कंपनी या कल कारखाने का प्रबंधन होता है। वे मशीनी अंदाज में सरकारी कामकाज करते हैं। जिस तरह के चर्च का प्रबंधन ईसाई धर्मगुरू करते हैं या मस्जिदों का प्रबंधन मुस्लिम धर्मगुरुओं, मौलानाओं के हाथों में होता है वैसे ही हिंदू मंदिरों का प्रबंधन हिंदू धर्मगुरुओं के हाथ में होना चाहिए। मंदिरों को मिलने वाले दान या चढ़ावे की रकम का ऑडिट हो, उसमें किसी को कोई समस्या नहीं है। आमदनी और खर्च का ब्योरा सार्वजनिक किए जाने में भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन साथ ही मंदिर प्रबंधन को चंदे और दान की रकम का उपयोग धार्मिक स्थल की शुचिता की रक्षा करने और धर्म के प्रचार प्रसार में करने की स्वंतत्रता भी होनी चाहिए।
सरकारों को यह समझने की जरुरत है कि मंदिर कोई सरकारी या निजी संस्था नहीं हैं। हर मंदिर की एक मान्यता है। उसका इतिहास है। उसकी समृद्ध विरासत है। भारत में अनेक मंदिर ऐसे हैं, जिनकी स्थापना सैकड़ों, हजारों साल पहले हुई है। हजारों वर्षों से कोई एक धार्मिक समूह या एक परिवार उन मंदिरों का रखरखाव और प्रबंधन करता रहा है। सिर्फ इस आधार पर उनसे यह अधिकार नहीं छीना जा सकता है कि अब वह मंदिर बहुत बड़ा हो गया है और उसको बहुत ज्यादा चंदा या चढ़ावा मिलने लगा है? क्या इस आधार पर सरकार किसी निजी कंपनी का अधिकार अपने हाथ में ले सकती है कि उसकी कमाई बहुत हो गई है? अगर नहीं ले सकती है तो फिर मंदिरों के मामले में ऐसा क्यों किया जाता है? माता वैष्णो देवी के मंदिर का प्रबंधन सदियों से बारीदार संभालते रहे थे। वे दसवीं सदी से मंदिर का प्रबंधन संभालते थे। लेकिन मंदिर की मान्यता बढ़ी और भक्तों की भीड़ बढ़ी तो माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड बना कर बारीदारों से प्रबंधन का अधिकार छीन लिया गया है। उत्तराखंड के चार धाम से लेकर कश्मीर में माता वैष्णो देवी के मंदिर तक की एक कहानी है। ऐसा सिर्फ हिंदू मंदिरों के साथ क्यों होता है?
ऐसे ही हर हिंदू मंदिर की कुछ विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई मान्यताएं वर्तमान समय के सामाजिक मूल्यों के संगत नहीं हैं। फिर भी उनमें बदलाव का फैसला सरकारी या अदालती आदेश से किया जाना क्या उचित है? सबरीमाला मंदिर में एक निश्चित आयु की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। लेकिन छुआछूत और समानता के अधिकार का हवाला देते हुए न्यायालय द्वारा इस पूजा परंपरा को समाप्त करने का आदेश दिया गया। क्या इस तरह के आदेश अन्य धर्मों में प्रचलित मान्यताओं को समाप्त करने के लिए सरकार के स्तर से या न्यायपालिका के स्तर से दिए जा सकते हैं? ध्यान रहे सामाजिक या पारिवारिक मान्यताएं अपनी जगह हैं। उनको समय के हिसाब से बदला जा सकता है। जैसे सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के नियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। लेकिन धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं इस दायरे में नहीं आती हैं।
बहरहाल, तिरुपति मंदिर के लड्डू में जानवरों की चर्बी और मछली के तेल की मिलावट का मामला समूचे हिंदू समाज की आस्था पर गहरा प्रहार है। लेकिन इस विवाद ने एक अवसर को जन्म दिया है। इससे सबक लिया जाना चाहिए और हिंदू धर्मस्थलों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाना चाहिए। उनका प्रबंधन हिंदू धर्म में गहरी आस्था रखने वाले और परंपराओं का सम्मान करने वाले धर्मगुरुओं के हाथ में सौंपी जानी चाहिए। उन्हें भी मंदिरों को मिलने वाले दान और चंदे का विवेकपूर्ण तरीके से धर्म के प्रचार, प्रसार में खर्च करने की अनुमति होनी चाहिए। उन्हें भी धार्मिक स्थलों का विकास करने की अनुमति होनी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 30 भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान बनाने और उन्हें संचालित करने का अधिकार देता है। हिंदू धर्मस्थलों को भी इस तरह का अधिकार दिया जाना चाहिए कि वे अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करें और उनका संचालन करें, जहां आधुनिक शिक्षा के साथ साथ धर्म, परंपरा और संस्कृति के पांच हजार साल पुराने इतिहास की भी शिक्षा दी जा सके। (लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)