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21-04-2025 Vol 19

सच्चाई सामने आने में समय लगता है जबकि झूठ…

आए दिन इतिहास के सच्चे झूठे किस्सों से समाज को बरगलाया जाता है और न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग होता है। अतीत की समझ महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज्य में भी दर्ज है जिससे अपन आज सीख व समझ सकते हैं। समाज में रहने-सहने व जानने-जीने की समझ बना सकते हैं।

“सच्चाई सामने आने में जितना समय लगता है, झूठ उतनी देर में सात समंदर पार हो जाता है।” ऐसा कहने, मानने वाले शताब्दियों से सुनकर, यही करते व होते हुए भी देख रहे है। और आज के सोशल मीडिया के जमाने में तो सच व झूठ की हालत अपन समझ ही सकते हैं। जब सच और झूठ का हाल यह है तो फिर न्याय का क्या हाल, या चाल होगी? सोच कर सिरहन उठती है। एक शहर की हाई कोर्ट का एक न्याय, तो दूसरे शहर में हाई कोर्ट दूसरा ही न्याय देता है। फिर वही हाई कोर्ट के मुद्दे, फिर सुप्रीम कोर्ट में लाए और सुने जाते हैं। क्या न्याय व्यवस्था में आज कुछ भी नीतिगत या नैतिक बचा है? समाज आए दिन देखता है कि कैसे न्यायाधीश न्याय देने के नाम पर ज्ञान देते नजर आते हैं।

समाज में न्याय के व्यापक, विस्तार व विभिन्न अर्थ रहे हैं। मगर साधारण तौर पर माना जाता है कि न्याय वह स्वीकृति है, वह विचार है या वह अवधारणा है जिसमें लोगों को वह मिले जिसके वे योग्य या पात्र हों। इस साधारण समझ के साथ ही सवाल भी उठता है कि किसी व्यक्ति या स्थिति की योग्यता कैसे और कौन तय कर सकता है? यानी न्याय अलग-अलग तरह से, कई क्षेत्रों में और अनेक दृष्टिकोण से प्रभावित रहा है। जिसमें नैतिक, तर्क, समभाव, कानून और निष्पक्ष व नैतिक शुद्धता की अवधारणा जरूरी मानी गयी। लेकिन आज अपने यहां न्याय की स्थिति शोचनीय व शर्मनाक है। समाज आज न्यायालय की हालत पर हैरान, और न्याय-व्यवस्था पर हंसने के लिए मजबूर है।

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा दी गयी एक ज्ञान से भरी टिप्पणी पर सावधानी बरतने की सलाह दी। जब न्याय देने वाले ही न्याय व्यवस्था से खिलवाड़ करने में लगते हैं तो क्या आम लोगों का भरोसा न्याय प्रणाली में बना रह सकता है? आए दिन इतिहास के सच्चे झूठे किस्सों से समाज को बरगलाया जाता है और न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग होता है। अतीत की समझ महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज्य में भी दर्ज है जिससे अपन आज सीख व समझ सकते हैं। समाज में रहने-सहने व जानने-जीने की समझ बना सकते हैं। सौ से ज्यादा साल पहले लिखे गए हिन्द स्वराज्य को आज के संदर्भ में देखना चाहिए। आज की स्थिति में क्यों न पाठक संपादक के सवाल-जवाब फिर से समझे जाएं?

पाठक: गांधी जी तो खुद वकील होकर भी वकालत के खिलाफ थे। तो क्या न्यायालय होना ही नहीं चाहिए? झगड़े दो भाई के या संस्थाओं के हों, उनको न्यायपूर्वक सुलझाने के लिए कोई तो निरपेक्ष संस्था होनी चाहिए या नहीं? ….

संपादक: इसे अजीब कहिए या दूसरा कोई विशेषण लगाईए। लेकिन शांति और विवेक से सोचेंगे तो बात समझ में आएगी। आप ने अदालत को जैसा समझा, असल में वकालत वैसी चली नहीं। … वकीलों ने आम लोगों में अलगाव बनाए रखा, जिससे पहले अंग्रेजी हुकूमत के और आज भी सत्ता के पांव ही मजबूत हुए हैं। वकालत वृत्ति से अनैतिकता ही फैली है। आज भी वकील सच उजागर करने के बजाए मुकदमा जीतने में ही विश्वास रखते हैं। जब दो लोग या संस्थाएं झगड़ती हैं तो वकील पक्ष लेते हैं और मुकदमा लटकाते हैं।…लगातार बढ़ते कचहरी के खर्च, गरीब को और गरीब बनाते हैं। वकालत वृत्ति लोगों को अभाव से निकालने के बजाय, अपनी पूंजी बढ़ाती नजर आती है।

क्योंकि वकालत धन वृद्धि का साधन बना, इसलिए वकील मनमुटाव ही बढ़ाते नजर आते हैं। वे ही ऐसे कानून बनाते हैं जिससे उनकी ही प्रतिष्ठा बढ़े… सत्ता को भी बनाए रखने, और उन्हीं की मनमर्जी चलाने में कचहरी का ही डर दिखाया जाता रहा है। आपसी झगड़े सुलझाने में तीसरे की दखल से मनुष्य की मानसिकता कमजोर हुई। अपने भाई-बंधुओं पर से भरोसा उठकर कचहरी पर बढ़ा। जनता न्यायालय में मिलने वाले न्याय के चक्कर में पड़ती है और तन, मन और धन से लुटती है। इन सब बातों को ध्यान में लाने के बाद क्या आपको आज का परिदृश्य सामने नहीं दिखता?

वक्फ बिल पर सुप्रीम कोर्ट ने कल केन्द्र सरकार से सवाल किया। समाज को अलग अलग अदालतों में चल रहे न्याय के खेल को शांति व धैर्य से समझना होगा। सत्ता के सच या झूठ को समझने के लिए समय लेना होगा।

संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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