टॉयनबी ने औरंगजेब द्वारा यहाँ बनवाई मस्जिदों को भी इस्लामी साम्राज्यवाद का प्रतीक बताया। उन मस्जिदों में कोई ईश्वरीय-भावना न थी। औरंगेजब ने जानबूझकर आक्रामक राजनीतिक उद्देश्य (‘इन्टेशनल ऑफेन्सिव पोलिटिकल परपस’) से काशी, मथुरा, अयोध्या, आदि स्थानों में मंदिर तोड़ कर वहीं पर मस्जिदें बनवाई। टॉयनबी के शब्दों में, ‘’वे मस्जिदें यह दिखाने के लिए थीं कि हिन्दू धर्म के महानतम पवित्र स्थानों पर भी इस्लाम का एकछत्र अधिकार है। यहाँ मैं यह जरूर जोड़ना चाहूँगा कि ऐसे भड़कीले स्थान चुनने में औरंगजेब बिलकुल जीनियस था। औरंगजेब एक बेचारा अभागा दिग्भ्रमित बुरा आदमी (‘पुअर रेचेड मिसगाइडेड बैड मैन’) था, जिस ने पूरी जिंदगी कठिन मेहनत करके ऐसी कुख्यात मस्जिदें बनाकर अपने को बदनाम किया।’’
बहुतेरे हिन्दू समय-समय पर बादशाह औरंगजेब पर उफनते रहते हैं। पर स्वतंत्र भारत के आठ दशक बाद भी उस की विरासत तय कर समुचित स्थान नहीं दिया जा सका है। इस बीच कुछ हिन्दू और मुस्लिम नेता इस मुद्दे का इस्तेमाल अपनी-अपनी राजनीति खरी करने में करते हैं। मुस्लिम नेता तो फिर भी चतुर और सिद्धांतनिष्ठ हैं। एक ओर वे मजे से अपने समुदाय में घमंड व अलगाव भरते हैं, कि ‘हम ने हिन्दुओं पर सदियों शासन किया है और इंशाअल्लाह फिर करेंगे। हिन्दू तो पिद्दी, लोभी और आपस में भी ऊँच-नीच में डूबे रहते हैं।
इन में शासन करने की क्षमता ही नहीं है।’ दूसरी ओर, वही मुस्लिम नेता हिन्दुओं को बेवकूफ बनाते हैं कि औरंगजेब तो संयमी, भला, जीडीपी बढ़ाने वाला ‘विकास’-पंथी था। इसलिए उस की निन्दा करना संकीर्ण सांप्रदायिकता है।
उन मुस्लिम नेताओं और उन के बौद्धिक समर्थकों की यह दलील इसलिए मजे से चलती है, क्योंकि खुद हिन्दू नेता दशकों से अपनी नई पीढ़ियों को मिलावटी और झूठा इतिहास पढ़ा रहे हैं। जिस में हिन्दू चिन्ताओं को सांप्रदायिकता कहकर लांछित किया जाता है, तथा उसी इस्लामी मतवाद का महिमामंडन रहता है जिस के सच्चे प्रतिनिधि औरंगजेब जैसे शासक ही रहे हैं। उस मतवाद का सत्य अधिकांश मुसलमान बखूबी जानते हैं, पर हिन्दू नेता और बौद्धिक बिलकुल अनजान हैं।
वे औरंगजेब को ही अपवाद बताकर राजनीतिक इस्लाम को रफा-दफा करते हैं। इस प्रकार, अपने को उत्साह से अँधेरे में रखते, मूल मतवाद का गुणगान करते हुए, अपने क्रमशः सफाए के लिए इस्लामियों को नैतिक बल प्रदान करते हैं।
इस बीच, हिन्दू नेताओं का एक वर्ग औरंगजेब जैसे मुद्दों का इस्तेमाल केवल अपना सत्ता-स्वार्थ साधने में करता है। चाहे समाज की कितनी भी हानि व बदनामी हो। पीड़ित हिन्दू समाज को ही दुनिया विलेन कहे, और आक्रामक मुस्लिम नेताओं को ही पीड़ित बताए। पर यही चलते रहना उन की राजनीति के लिए लाभदायक है, जो हिन्दुओं को ऐसे मुद्दों पर उकसाकर वोट व धन बटोरते रहते हैं। इसलिए भी इन के समाधान के लिए कुछ नहीं करते! उलटे, पक्के इस्लामी मार्गदर्शकों तथा उन के सहयोगी वाममार्गियों को सम्मानित करते हैं।
जबकि हिन्दू मनीषियों को उपेक्षित और लांछित तक करते हैं। यह पैटर्न पिछले दस-पंद्रह वर्षों में और साफ देखा जा सकता है, यद्यपि उन की यह नीति बहुत पुरानी है।
वरना, यह कैसे संभव होता कि हिन्दू अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक रहें, और झूठे बदनाम भी हों? यह विविध प्रकार के हिन्दू नेताओं-बौद्धिकों के हाथों ही होता रहा है। हिन्दूवादी नेता भी सत्ता से बाहर रहते जो मुद्दे उठाते हैं, सत्ता पाकर उन्हीं को ‘अप्रासंगिक’ बताते हैं। जैसे अभी औरंगजेब पर कहा। पहले अतिक्रमित मंदिरों पर आंदोलन करके वोट खरे किए। पर सत्ता में आकर हिन्दुओं को फटकारा कि ‘हर मस्जिद के नीचे मंदिर क्यों खोजना!’
इस दोहरेपन का एक रूप यह भी है कि जो लोग सदियों पहले गुजर चुके औरंगजेब की कब्र उखाड़ने की बात करते हैं – वही कश्मीर, जम्मू, बंगाल, और दिल्ली तक में आज औरंगजेबी मानसिकता वालों के वैसे ही कारनामों पर चुप्पी रखते हैं। एक बयान तक नहीं देते, चाहे हिन्दुओं का जगह-जगह उत्पीड़न क्यों न होता रहे। बंगाल में पिछले विधानसभा चुनाव बाद जब यह हुआ तो संघ-भाजपा के कार्यकर्ता भी गुहार लगाते रहे, पर उन के तमाम नेता गुम रहे।
इस प्रकार, असली बात समाधान के प्रति उदासीनता है। इस पर प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टॉयनबी की सलाह सटीक थी। दिल्ली में आजाद मेमोरियल लेक्चर (1960) में उन्होंने कहा था कि प्रथम विश्व-युद्ध में पोलैंड पर कब्जे के बाद रूसियों ने राजधानी वारसा में रूसी आर्थोडॉक्स चर्च का निर्माण किया। पर जैसे ही पोलैंड स्वतंत्र हुआ, वह चर्च तोड़ दिया गया। यह याद कर टॉयनबी ने औरंगजेब द्वारा यहाँ बनवाई मस्जिदों को भी इस्लामी साम्राज्यवाद का प्रतीक बताया।
उन मस्जिदों में कोई ईश्वरीय-भावना न थी। औरंगेजब ने जानबूझकर आक्रामक राजनीतिक उद्देश्य (‘इन्टेशनल ऑफेन्सिव पोलिटिकल परपस’) से काशी, मथुरा, अयोध्या, आदि स्थानों में मंदिर तोड़ कर वहीं पर मस्जिदें बनवाई। टॉयनबी के शब्दों में, ‘’वे मस्जिदें यह दिखाने के लिए थीं कि हिन्दू धर्म के महानतम पवित्र स्थानों पर भी इस्लाम का एकछत्र अधिकार है। यहाँ मैं यह जरूर जोड़ना चाहूँगा कि ऐसे भड़कीले स्थान चुनने में औरंगजेब बिलकुल जीनियस था। औरंगजेब एक बेचारा अभागा दिग्भ्रमित बुरा आदमी (‘पुअर रेचेड मिसगाइडेड बैड मैन’) था, जिस ने पूरी जिंदगी कठिन मेहनत करके ऐसी कुख्यात मस्जिदें बनाकर अपने को बदनाम किया।’’
टॉयनबी के अनुसार पोलिश लोगों ने रूसियों द्वारा बनाया चर्च ढाह कर रूसियों की बदनामी का स्मारक भी हटा दिया। परन्तु भारतीयों ने औरंगजेब की बनवाई मस्जिदों को वैसे ही खड़ा रख कर निर्दय (‘अनकाइन्ड’) काम किया है। इस से मुसलमानों की बदनामी और हिन्दुओं की नाराजगी बनी रहती है। उसे खत्म करना ही उचित होता। एक महान इतिहासकार द्वारा दशकों पहले दी गई सलाह पर हिन्दू नेता ठस बने रहे।
औरंगजेब पर विवाद: इतिहास से सबक या भटकाव?
बहरहाल, औरंगजेब की कब्र उखाड़ने को हवा देना व्यर्थ है। मंदिरों को तोड़ने और हिन्दुओं के उत्पीड़न के लिए औरंगजेब कोई व्यक्तिगत जिम्मेदार नहीं था। उस से आगे और पीछे सैकड़ों इस्लामी हमलावरों, शासकों, संगठनों ने वही किया है। इसलिए औरंगजेब की कब्र हटाने के बाद भी हिन्दू-मुस्लिम अविश्वास और विषमता यथावत रहेगी, जो असली समस्या है। कब्र हटाने जैसे झुनझुने से हिन्दू भावनाओं का दोहन भर होगा। जबकि मुसलमानों को बरगलाया जाएगा कि उन का अपमान हुआ। इस से वे औरंगजेब वाली ‘दिग्भ्रमित’ और ‘बुरी’ मानसिकता में बनाए रखे जाते हैं। उन्हें आधी-अधूरी बातें और झूठे घमंड का पाठ पढ़ाया जाता है।
इसलिए अतीत के अत्याचारियों के चिन्ह मिटाने के बदले, कवि-चिंतक अज्ञेय की सलाह के अनुरूप, भारतीयों को वास्तविक इतिहास से अवगत कराना जरूरी है। इस से उन में उन में सही और संतुलित मनोभाव बनने में सहायता मिलेगी। जिस से समस्या के समाधान की ओर बढ़ना सहज होगा। अब तक इतिहास छिपाते रहने से ही हिन्दू और मुसलमान, दोनों अज्ञान में रहते अलग-अलग तरह से दिग्भ्रमित होते हैं।
आखिर औरंगजेब जैसे इस्लामी शासकों ने हजारों मंदिर क्यों ध्वस्त किए थे? उन का घोषित उद्देश्य था गैर-मुस्लिमों (‘काफिरों’) का धर्म खत्म कर इस्लामी वर्चस्व बनाना। यही तमाम इस्लामी शासकों ने दुनिया भर में किया, जब और जहाँ उन का जोर चला। हाल में देवबंदी तालिबान, इस्लामी स्टेट, आदि ने भी वही उद्देश्य दिखाया। बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध-मूर्तियाँ तोड़ने पर भारतीय उलेमा ने भी तालिबान की बड़ाई की थी। यह औरंगजेबी मानसिकता असली समस्या है। पर यहाँ गाँधीवादी, वामपंथी, संघी, आदि विविध प्रकार के हिन्दू नेता व बौद्धिक इस पर स्वयं भ्रमित रह कर सब को भ्रमित करते हैं।
हमें अदद अत्याचारियों के चिन्ह मिटाने में नहीं जाना चाहिए। मूल समस्या वह मतवाद है जो औरंगजेब जैसों को तब और आज भी प्रेरित करता रहा है। उन्हें ‘दिग्भ्रमित बुरा आदमी’ बनाता, और उस पर घमंड भी सिखाता है। ऐसे मतवाद को कठघरे में खड़ा कर, उस के दावों और इतिहास की खुली जाँच-परख हो। इसे नियमित, सामान्य कार्य बना दिया जाए। तभी मुसलमानों में विवेकशील विमर्श को सहायता मिलेगी। वही करणीय है।
यह विमर्श कि यदि मुहम्मदी मत सत्य है तो गैर-मुस्लिमों को भी मुसलमान बनना चाहिए। यही औरंगजेब से लेकर मौलाना वहीदुद्दीन और इस्लामी स्टेट भी चाहते रहे हैं। लेकिन यदि वह सत्य नहीं है तो मुसलमानों को भी उस से दूर होने, उस में विश्वास कम करने पर सोचना चाहिए। वरना उन में ‘बेचारे अभागे दिग्भ्रमित बुरे आदमी’ बनते रहेंगे। जिन्हें हीरो समझ कर तात्कालिक रूप से मुसलमान कितने भी गर्वित हों, जैसे हाल में ओसामा बिन लादेन पर हुए थे, पर उन का कोई मूल्य नहीं है।
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